हर किसी की एक ही चिरन्तन खोज!
--
संस्कृत भाषा के मस्, और मज्ज् धातु से मस्तक तथा मस्तिष्क शब्द की उत्पत्ति होती है। अंग्रेजी भाषा में भी mast और master दोनों शब्द इस अर्थ का अनुसरण करते हैं। जहाज में मस्तूल का उद्गम इसी मस् और मज्ज् धातु से है यह देखा जा सकता है। मज्ज् से ही अंग्रेजी भाषा के merge, emerge शब्द बनते हैं जो उसी अर्थ के द्योतक होते हैं।
इसी प्रकार अंग्रेजी में Master तथा जर्मन भाषा में Meister शब्दों का प्रयोग स्वामी के अर्थ में होता है-
Practice / Lesson makes one the Master.
- Übung macht den Meister.
भारत में आध्यात्मिक मार्गदर्शक को "स्वामी" इसी अर्थ में कहा जाता है, और उससे मार्गदर्शन प्राप्त करनेवाले को शिष्य कहा जाता है। शिष्, शिष्यते, शास्, शासयति धातुओं का प्रयोग शिक्षा देने और शेष रहने के अर्थ में और शासन करने के अर्थ में भी होता है। शिष्य के लिए एक शब्द "छात्र" भी होता है जिस पर किसी की छाया होती है, जो किसी की छत्रछाया में सुरक्षित रहता और पलता-बढ़ता है।
शिक्षा, शिष्य और शिक्षक के बीच सम्यक् और फलप्रद संवाद होने के लिए अपरिहार्यतः आवश्यक परिस्थितियों के बारे में तैत्तिरीय उपनिषद् के प्रारंभ में ही -
"शीक्षा-वल्ली"
में स्पष्टता से कह दिया गया है।
आध्यात्मिक या धार्मिक शिक्षक से शिक्षा प्राप्त करने से पहले यह जानना महत्वपूर्ण होता है कि क्या वह हमारा वास्तविक शिक्षक है या हो सकता है?
और हम जिस स्थिति में हैं उस स्थिति में हमारे लिए यह संभव नहीं होता कि अपने लिए किसी सुयोग्य शिक्षक को पहचान कर सकें। क्योंकि यदि यह संभव होता तो हमें शिक्षक की आवश्यकता ही न होती।
यह इसलिए भी संभव नहीं है क्योंकि आध्यात्मिक ज्ञान सांसारिक विषयों के ज्ञान की तरह वैसा सूचना-परक ज्ञान - Information नहीं होता, जिसे कि पुस्तकों से पढ़कर सीखा जा सकता हो। तो कसौटी है यह प्रश्न कि आध्यात्मिक ज्ञान से हमारा क्या आशय है? शास्त्रीय आधार पर तो इसकी कसौटी यही है कि हममें पहले तो यह समझ उत्पन्न हो कि संसार और संसार में व्यतीत किया जानेवाले जीवन में सतत दुःख और शायद सुख भी आते जाते रहते हैं, और यद्यपि सुख आकर चला जाता है, दुःख आकर भी नहीं जाता और इस या उस रूप में जीवन के साथ लगा ही रहता है। और मान लें कि संयोगवश हमें सतत सुख ही सुख मिलता रहे तो हम उससे भी ऊब जाते हैं। यदि सुख न भी मिलें तो भी दुःखों के दूर होने की आशा तो होती ही है। और यह भी विचित्र बात है कि यद्यपि सुख मिलते भी रहें तो भी आनेवाले संभावित या अप्रत्याशित दुःखों की आशंका हमें सुख का निश्चिन्त होकर उपभोग भी नहीं करने देती।
इस प्रकार नेपथ्य में दुःख सतत बना रहता है और कभी कभी तथाकथित खुशी या सुख उस पर आवरित होकर हमें विस्मृत हो जाता है। और बहुत से दूसरे दुःख भी हर किसी को दिन प्रतिदिन चिन्ताग्रस्त किए रहते हैं ही। जब वह इन कष्टों से बुरी तरह त्रस्त हो जाता है तो कभी तो उनसे छुटकारा पाने के लिए जी जान लगाकर संकल्प कर लेता है, कभी सफल तो कभी असफल भी होता है, किन्तु बिरले ही कभी उसका ध्यान इस सच्चाई पर जा पाता है कि अन्ततः मृत्यु कभी न कभी अवश्य ही होगी ही और मृत्यु के बाद उसका क्या होगा इस बारे में भी कुछ पक्का पता नहीं है!
अपने समाज और समुदाय विशेष के लोगों के संपर्क में रहने पर उसे लगता है कि उसका धर्म और उस धर्म की मान्यताएँ और मत ही एकमात्र अंतिम और पूर्ण सत्य है, जिन पर उसे विश्वास कर ही लेना चाहिए। ऐसा करना उसे सुविधाजनक भी लगता है। वह यह नहीं देख पाता है कि ऐसे भी अनेक समुदाय और सामाजिक व्यवस्थाएँ हैं, जिनकी धार्मिक मान्यताएँ उसके धर्म की मान्यताओं से विपरीत हैं और दुराग्रहपूर्ण भी हैं। इन सभी समुदायों के अपने-अपने समुदाय-प्रमुख भी होते हैं जिनके अपने अपने स्वार्थ होते हैं और वे अपने अनुयायियों पर वर्चस्व बनाए रखने के लिए हर तरह के हथकंडे अपनाया करते हैं। यह लगभग असंभव ही है कि किसी भी ऐसे धार्मिक मतों और मान्यताओं के आधार पर संगठित समुदाय का कोई सदस्य लोभ और भय से रहित होकर अपने विवेक के अनुसार स्वतंत्र रूप से धर्म क्या है? इस बारे में प्रश्न और जिज्ञासा पर सके। क्योंकि प्रत्येक धार्मिक समुदाय की अपना एक पारंपरिक और सुदृढ आधार भी होता है। उसके अपने मठ-मन्दिर, आश्रम और सत्ता-केन्द्र भी होते है, जो खुलकर, निर्लज्जतापूर्वक, छल-कपट के सहारे अपनी सत्ता का विस्तार करने में संलग्न रहते हैं। ऐसे ही लोग, जो किसी भी और हर प्रकार के समुदाय में ऊपर से ऊपर उठते चले जाते हैं, शीर्ष स्तर पर पहुँचकर पूरे समुदाय पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लेते हैं। यह क्रम कब से प्रारंभ हुआ कहना शायद कठिन हो, किन्तु रुचि और जिज्ञासा हो तो इस तथ्य को देख पाना और समझ सकना और अपने आपको इस सारे उपद्रवों से अलग कर लेना इतना कठिन नहीं है।
सौभाग्य से उनका जन्म भारत में हुआ और मेरी तरह वे भी भारतीय हैं। मेरी तरह वे भी कुछ खोज रहे हैं, और किसी खोज में संलग्न हैं। वे बहुत समय से इस खोज में संलग्न हैं, और अब तो उन्हें यह भी स्मरण नहीं रह गया है कि आखिर वे किस वस्तु को खोज रहे हैं। संक्षेप में - वे अपनी इस खोज के सिलसिले में यहाँ से वहाँ भटक रहे हैं। कभी सोचते हैं कि संन्यास लेकर किसी आश्रम में रहने लगें। उन्होंने संन्यास तो नहीं लिया किन्तु वे अनेक आश्रमों में कुछ दिनों या महीनों तक भी यह चुके हैं। और अब अपनी आयु के उस मोड़ पर हैं जिसे भारतीय आश्रम-परंपरा के विधान के अनुसार वानप्रस्थ आश्रम कहा जाता है। कुछ वर्षों पहले उनकी जीवन-संगिनी का निधन हो चुका है और बच्चे भी सुदृढ आर्थिक स्थिति से संपन्न हैं। वे तय नहीं कर पा रहे हैं कि आगे क्या करें!
सौभाग्य से शारीरिक और आर्थिक दृष्टि से उन्हें किसी तरह की कोई समस्या नहीं है, किन्तु बच्चों और परिवार के अन्य लोगों की चिन्ता नहीं छोड़ पा रहे हैं।
स्पष्ट है कि उन्हें स्वयं ही उनके समक्ष और उन्हें उपलब्ध विकल्पों में से किसी एक या अधिक विकल्पों का चुनाव करना है, उनकी एक समस्या यह भी है कि वे किसी ऐसे स्थान की खोज कर रहे हैं जहाँ वे लंबे समय तक रहकर "साधना" कर सकें।
किन्तु क्या वास्तव में यह कोई "समस्या" है?
शायद वे अपनी समस्या को ठीक से नहीं देख पा रहे हैं। शायद उन्हें किसी स्थान की नहीं, बल्कि किसी ऐसे एक "व्यक्ति" की आवश्यकता हो, जो कि उनके जीवन साथी के अभाव की पूर्ति कर सके। और यह भी जरूरी नहीं है कि ऐसा व्यक्ति कोई स्त्री ही हो, कोई भी स्त्री या पुरुष जो कि उनका मित्र या गुरु ही क्यों न हो, इस अभाव की पूर्ति कर सकता है।
***
No comments:
Post a Comment