सृजनम् स्रवनम् श्रवणम्
श्रवण मनन निदिध्यासन
श्रुति
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काँवडयात्रा
श्रवण कुमार के माता पिता नेत्रहीन थे और तीर्थयात्रा पर जाना चाहते थे। उस युग में, जिसे सतयुग कहा जाता है, यह मान्यता थी और इसे धर्म भी माना जाता था। वैदिक शिक्षा के अनुसार भी, माता-पिता की सेवा से बड़ा कोई पुण्यकर्म नहीं होता।
चूँकि श्रवण कुमार के माता-पिता वृद्ध और नेत्रहीन थे , इसलिए श्रवण कुमार ने एक काँवड बनाकर उसके एक पलड़े पर पिता को और दूसरे पर माता को बैठाया और चल पड़े तीर्थयात्रा की उनकी इच्छा पूर्ण करने के लिए। बहुत से विविध तीर्थों की यात्रा पूरी हो जाने पर किसी समय वे विश्राम करने के लिए उस रास्ते पर रुके जो कि वन से होकर गुजरता था। उन्होंने एक सरोवर के किनारे माता-पिता को काँवड से उतारा और वे माता-पिता की प्यास बुझाने के उद्देश्य से जल लेने के लिए सरोवर तक पहुँचे। सरोवर से जल लेने के लिए उन्होंने जल के पात्र को सरोवर में डाला और डुब् डुब् की ध्वनि के साथ जल पात्र में भरने लगा। अभी पात्र आधा ही भरा था कि कहीं से सनसनाता हुआ एक तीर ने उनके हृदय को बेध दिया तो वे अचेत होकर वहीं गिर गए। अभी कुछ ही पल बीते होंगे कि एक नवयुवक वहाँ आ पहुँचा, जो कि कोई और नहीं, बल्कि अयोध्या के राजकुमार दशरथ थे। धनुर्वेद में प्रवीण और शब्दवेधी बाण चलाने में निष्णात। उन्होंने उस अंधेरे में डुब् डुब् का यह शब्द सुना तो उन्हें लगा कि कोई पशु सरोवर से जल पी रहा है। धनुर्विद्या की अपनी क्षमता से गर्व में वे डूबे हुए थे और उस पशु को देखने के लिए वहाँ आए थे जिसे उन्होंने शब्दभेदी बाण चलाकर मार डाला था। किन्तु जैसे ही उन्होंने देखा कि वह कोई पशु नहीं बल्कि उनके ही जैसा या उनसे कुछ कम आयु का नवयुवक था तो उनके तो पैरों तले से धरती खिसक गई। और बाद की कथा तो सभी को विदित ही है।
श्रवण कुमार के माता-पिता भी इस हृदय को विदीर्ण कर देनेवाले आघात को सह न सके और शीघ्र ही उन दोनों ने भी अपने प्राण त्याग दिए। "श्रवण" शब्द श्रु - श्रूयते धातु से बना है जिसका अर्थ है "सुनना" । इससे ही बना एक और शब्द है "श्रुति"। श्रुति का अर्थ है वेद-वाणी। पर्याय से इसलिए वेद की कहा जाता है। अंग्रेजी भाषा का शब्द "hear" इसी संस्कृत पद श्रु का अपभ्रंश है और यही जर्मन भाषा मे hören हो जाता है। और इसे "श्रवण" के अपभ्रंश के रूप में भी व्युत्पन्न किया जा सकता है।
The Art Of Listening.
जैसा ऊपर वर्णन किया गया, 'श्रुति' वेद-वाणी का श्रवण है और वेद का अध्ययन पाठ या श्रवण से भी किया जा सकता है। वेदमंत्रों की अर्थात् श्रुति की शिक्षा इस प्रकार से आचार्य द्वारा शिष्य को वाचिक परंपरा से ही दी जाती है, किन्तु फिर इसे लिपिबद्ध भी किया जाने लगा। पुनः, वाचिक परंपरा से प्राप्त इस शिक्षा को ब्राह्मी (शारदा), नागरी / देवनागरी और श्रीलिपि के अतिरिक्त द्राविड में भी लिपिबद्ध किया जाने लगा। लोक-द्राविड के रूप में प्राचीनतम तो தமிழ் भाषा और लिपि ही थी, किन्तु अनेक कारणों से वह वेद-निष्ठ संस्कृत का विकल्प नहीं हो सकती थी। इसलिए भगवान् स्कन्द ने इसके परिष्कृत रूप ग्रन्थलिपि का आविष्कार किया।
वेद-मंत्रों का पाठ और श्रवण भी पात्र और अधिकारी मनुष्य के द्वारा किया जाना चाहिए। अनधिकारी और अपात्र के द्वारा ऐसा किया जाना अनिष्टप्रद होता है। इसीलिए शूद्र वर्ण के व्यक्ति शम्बूक का वध भगवान् श्रीराम के द्वारा किया गया और इसलिए शम्बूक को उत्तम गति और दिव्यप्राप्त की प्राप्ति हुई।
महाकवि कालीदास तृण रघुवंश और भवभूतिकृत उत्तररामचरितम् में भी इस कथा का वर्णन है।
ऐसा एक और उदाहरण कुन्ती का है जिसने अविवाहित अवस्था में ही सूर्य-अथर्वशीर्ष का पाठ सुन लिया और तब उसे संतान के रूप में सूर्य, इन्द्र और वायु इन तीनों देवताओं के पुत्रों को जन्म देना पड़ा था। सूर्यपुत्र कर्ण को तो लोकापवाद के भय से उसका जन्म होते ही नदी प्रवाहित कर दिया गया था। यम के पुत्र युधिष्ठिर और वायुपुत्र भीम के अतिरिक्त इन्द्र के पुत्र अर्जुन थे।
भवभूतिकृत उत्तररामचरितम् और महाकवि कालीदास तृण रघुवंश में आप
रुद्र, गणपति, देवी, नारायण और सूर्य अथर्वशीर्ष में रुद्र सूर्य, यम, वायु (मातरिश्वा), स्कन्द, अग्नि, प्रणव, वरुण (आपः) और इन्द्र आदि को एक ही परमात्मा के अनेक प्रकारों में वर्णित किया गया है।
श्रावण / सावन में भगवान् शिव पर जलाभिषेक करने के लिए जाते हुए काँवडयात्रियों के बारे में पढ़ते हुए इस पोस्ट को लिखने की प्रेरणा हुई।
नमः शिवाय।।
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