Monday 30 August 2021

विषय, विचार, भावना

निर्णय, भान, विषयी

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कोई विषय हमें आकर्षित करता है। 

कोई विचार हमें आकर्षित करता है। 

कोई विषय हमें विकर्षित करता है। 

कोई विचार हमें विकर्षित करता है। 

कोई विषय / विचार हममें कोई भावना जागृत करता है।

कोई विषय / विचार तो हमें छूता तक नहीं। 

कोई विषय / विचार स्मृति से एकाएक ऊपर उभर आता है।

अच्छे और बुरे की भावना, प्रिय और अप्रिय की भावना, लज्जा या शर्म, संशय, चिन्ता, व्यग्रता, व्याकुलता, सुरक्षा, क्रोध, लोभ, असमंजस, आशा और निराशा, ग्लानि, और ऐसी दूसरी भी कई भावनाएँ सभी किसी विषय के सामने आते ही प्रायः जागृत हो उठती हैं। इनमें शायद सर्वाधिक विशिष्ट और इनसे कुछ भिन्न और विलक्षण भावना होती है जिसे भविष्य अथवा भूतकाल कहा जाता है। 

इस पूरी वास्तविकता पर शायद ही कभी हमारा ध्यान जाता हो, किन्तु यह तो जीवन की रीति ही होती है। हम सचेत रहें या न रहें, जीवन की गतिविधि रुकती नहीं।

या तो हम जीवन की इस गतिविधि के प्रति सजग और सचेत होते हैं, या बाहरी परिस्थितियों, या अपने संस्कार के दबाव में किसी हद तक भावनाओं को वश में कर लेते हैं। 

फिर भी, जब इस प्रकार किन्हीं भावनाओं या किसी एक को भी वश में कर लिया जाता है, तो वे मन की गहराई में कुंठित होकर दबी रहकर कुलबुलाती रहती हैं और अनुकूल परिस्थिति होने पर अकस्मात् फूट पड़ती हैं।

इस पूरी प्रक्रिया के होने में वैसे तो समय लगता है, किन्तु समय भी क्या विचार या भावना (या एक साथ दोनों ही) नहीं होता? 'समय', जिसे अभी अभी 'प्रक्रिया' पर आरोपित किया गया?

यह 'समय' नामक वस्तु क्या कोई भौतिक राशि है? क्या इस 'समय' की, दूसरी भौतिक वस्तुओं की तरह से माप-जोख की जा सकती है? क्या इसे मापने-तौलने का विचार या कल्पना भी निरर्थक और हास्यास्पद नहीं है?

भावना एक जीवंत, प्राणवान, जीवित तथ्य है, -कोई जड या भौतिक वस्तु नहीं, किन्तु उसे नाम या कोई शब्द दिए जाते ही 'विचार' पैदा होता है और तब भावना ही स्मृति में रूपान्तरित हो जाती है। एक ही समय पर ऐसी अनेक भावनाओं की स्मृति होने पर उनकी परस्पर तुलना  की जाने लगती है, जो 'विचार' की ही सहायता से संभव होता है।

भावना को शब्द या नाम दिए जाते ही,

"मुझे पता है।", या "पता है।" 

इस प्रकार के ज्ञान का भ्रम हममें पैदा हो जाता है।

फिर ऐसी ही किसी भावना से प्रेरित व्यवहार या आचरण को 'कार्य' / 'कर्म' कहा जाता है, और पुनः उस कार्य तथा ऐसे ही असंख्य कार्यों को घटना के रूप में स्मृति में संजो लिया जाता है।

इसी तरह एक सर्वाधिक प्रमुख भावना, जो निरंतर उत्पन्न होती है, और उतनी ही शीघ्र विलीन भी होती रहती है, वह है - अपने होने, या अस्तित्व से अपने भिन्न और पृथक् होने की भावना।

यही भावना, अपनी आभासी निरंतरता से, बुद्धि में अपने कुछ विशिष्ट और अस्तित्व / संसार से पृथक् कुछ होने के अनुमान और फिर स्मृति में ढल जाती है, जो क्रमशः दृढ और स्थायी हो जाती है। इसे ही बोलचाल की भाषा में "मैं" शब्द से व्यक्त किया जाता है और इस प्रकार अपने व्यक्तित्व का जन्म होता है। 

यद्यपि यह "मैं" सबके लिए अपने नितांत निजी प्रयोग की वस्तु होता है, फिर भी इस शब्द को सब प्रयोग करते हैं और किसी को इससे कोई दुविधा भी नहीं होती, किन्तु इस प्रकार इस शब्द के जिस तात्पर्य को ग्रहण किया जाता है, उससे मनुष्य अपने तथा अपने संसार के बीच आभासी और कृत्रिम विभाजन की एक काल्पनिक दीवार खड़ी कर लेता है।

इस प्रकार से असंख्य व्यक्तियों के अपने अपने संसार होते हैं जो एक दूसरे से अत्यंत भिन्न और पृथक् होते हैं। फिर भी प्रत्येक का एक सर्व-सम्मत संसार / भौतिक विश्व भी है ही, जिसे हर मनुष्य अपनी जाग्रत अवस्था में अनुभव करता है।

मनुष्य-मात्र में अपने और अपने संसार के बीच का यह कृत्रिम और काल्पनिक, वैचारिक विभाजन "मैं" शब्द के सतत प्रयोग से निरंतर दृढ होता रहता है।

यह भी कहा जा सकता है कि पशु-पक्षियों और अन्य जीवित कहे जानेवाले 'चेतन' / sentient  प्राणियों में भी ऐसी भावना, उसकी निरंतरता तथा उसकी स्मृति भी होती ही होगी किन्तु वह केवल शरीर और शरीर की स्मृति तक ही सीमित रहती होगी। उनके पास कहने के लिए शायद ही "मैं" जैसा या कोई और शब्द होता होगा जिससे वे अपनी स्मृति में वैसी कोई प्रतिमा बना सके जैसी कि मनुष्य बना लेता है।

इस समूची वास्तविकता का भान हो जाने पर, और इस प्रकार से इसका अवलोकन कर लेने पर, क्या (मन में) कोई नई भावना जागृत होती है? 

स्पष्ट है कि 'मन' भी ऐसा ही एक शब्द है जो भावना के  प्रभाव के रूप में उस भावना के अर्थ का द्योतक है,  -न कि ऐसी कोई  वास्तविकता। क्या यह मन, मूलतः भावना ही नहीं है, जो यद्यपि क्षण क्षण बदलती रहती है, किन्तु उसका अस्तित्व कभी समाप्त नहीं होता? 

इस विवेचना को, विचार की सहायता से किसी शास्त्र से संबद्ध कर शास्त्र रूपी वैचारिक क्रम भी दिया जा सकता है, और भ्रम को और अधिक दृढता प्रदान की जा सकती है, लेकिन वह सिर्फ़ वैचारिक भूल-भुलैया में अंतहीन भटकाव होगा।

विषय  (object) और विषयी (subject) के रूप में जागरूक  होना, सचेत होना, भान होना, -क्या पुनः भावना ही नहीं है?

कभी हम सचेत होते हैं, जो भान होने से ही संभव होता है। कभी हम अचेत होते हैं तो उस अवस्था में -भान नहीं था, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि पुनः सचेत होने पर भी हमें स्पष्टता से इसका पता निश्चयपूर्वक होता है, कि हम तब भी थे, और तब भी हमें अपने होने की जागृति थी ही। इसकी तुलना अपनी निद्रावस्था से भी की जा सकती है। 

कभी हम जानकारी / विचार का आधार लेकर सचेत होते हैं, जो शायद यांत्रिक, स्मृतिगत, और अभ्यासजनित होता है, वह सदैव ज्ञात की सीमा के अंतर्गत ही होता है।

किन्तु अपने होने का स्वाभाविक भान, अस्तित्व के प्रति सचेत होना, यह सजगता, यह जागृति, क्या अभ्यासजनित होती है?

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Sunday 29 August 2021

The Fabric of the Cosmos.

ब्रह्मसूत्र 

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वन्दे वाणी-विनायकौ

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वर्णानामर्थसंघानां रसानां छन्दसामपि । 

मङ्गलानां च कर्त्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ ।।

लगभग तीन माह पूर्व ब्रह्मसूत्र का अध्ययन कर रहा था ।

संस्कृत शाङ्करभाष्य में,

प्रथम अध्याय, प्रथम पाद, प्रथम अधिकरण के, 

प्रथम सूत्र के प्रारम्भ में भूमिका को पढ़ा,

फिर उसका ही स्वामी गंभीरानन्द द्वारा लिखित अंग्रेजी अनुवाद भी पढ़ा। वैसे गीताप्रेस गोरखपुर द्वारा प्रकाशित हिन्दी अनुवाद से भी कुछ सहायता प्राप्त हुई।

फिर प्रतीत हुआ कि इसी मूल संस्कृत भाष्य का अपनी अल्प बुद्धि की सहायता से अभ्यास के लिए अनुवाद करना चाहिए।  अतः उपरोक्त के दो पृष्ठ लिखे। 

फिर बहुत दिनों तक उस पर ध्यान नहीं दे पाया। 

आज सुबह, 

'मंतव्य, वक्तव्य और ज्ञातव्य'

कुछ और लिखने के लिए नोट-बुक में स्थान खोज रहा था, कि दोनों पृष्ठ एकाएक सामने आए। यद्यपि उसके तुरंत बाद इसे लिखना अनुपयुक्त न होता, किन्तु फिर सोचा कि उस क्रम को वैसे ही रहने दिया जाए। 

अतः दूसरी नोट-बुक में दूसरा प्रकरण लिखना प्रारंभ किया। इसके बाद ऐसा लगा, कि इन दोनों को साथ रखकर एक नया पोस्ट लिखा जा सकता है।

"Semantics" के लिए हिन्दी में कौन सा शब्द प्रयुक्त होता है, इस बारे में मुझे ठीक से पता न होने से शब्दकोष में खोजने पर वहाँ 'अर्थग्राम' शब्द प्राप्त हुआ। उससे संतुष्टि नहीं हुई।

अभी शाम को फिर सोचा कि इसे पोस्ट में लिखा जाए। 

सामने रखी गोस्वामी तुलसीदास-विरचित श्रीरामचरितमानस पर दृष्टि गई। उसे खोलते ही बालकाण्ड के प्रथम श्लोक पर ध्यान गया और तुरंत याद आया कि

"Semantics"

के लिए जो शब्द मैं सुबह खोज रहा था, वह तो यही है। इसीलिए इस पोस्ट का आरंभ इसी श्लोक से कर रहा हूँ।

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'युष्मद्' प्रत्यय से जिसे मध्यम पुरुष - 'तुम' की तरह जाना जाता है, और 'अस्मत्' प्रत्यय से, जिसे उत्तम पुरुष 'मैं' की तरह जाना जाता है, उनके बीच क्रमशः विषय और विषयी की तरह का, -अंधकार और प्रकाश जैसा मौलिक भेद होता है, अतः उनमें से किसी का भी,  दूसरे से उत्पन्न होना संभव नहीं है। उन दोनों का स्वभाव भी परस्पर अत्यंत भिन्न होने से भी वे अन्योन्याश्रित नहीं हो सकते। इसलिए जिसे 'अस्मत्' प्रत्यय की तरह ग्रहण किया जाता है, उस चेतना अर्थात् विषयी की चेतना पर 'युष्मत्' प्रत्यय रूपी विषय के धर्मों को आरोपित किए जाने को ही अध्यास (superimposition) कहा जाता है। तात्पर्य यही, कि इस  आरोपण का ही नाम 'अध्यास' है। इस प्रकार के त्रुटिपूर्ण अध्यास के ही आधार पर, विषयी के धर्मों को विषयों पर आरोपित किया जाना भी इसी तरह त्रुटिपूर्ण अर्थात् मिथ्या है, ऐसा कहना सर्वथा सुसंगत होगा। 

तथापि दोनों का परस्पर, पारस्परिक अध्यास अर्थात् एक के धर्मों को दूसरे पर आरोपित कर दिया जाना, लोक-व्यवहार में दृष्टव्य और प्रचलित ही है। 

विषय (युष्मत्) / you, तथा विषयी (अस्मत्) / I, - इन दोनों के धर्मों और उन धर्मों के स्वभाववाले तत्वों के इस मिश्रित ज्ञान की (विवेक से) विवेचना करते हुए सत्य एवं असत्य को, जो अहं-इदं तथा मम-इदं के रूप में भी परस्पर अत्यंत भिन्न स्वरूप के हैं, के आधार पर ही हमारा सारा स्वाभाविक लौकिक व्यवहार किया जाता है।

अतः प्रश्न उठता है :

'अध्यास' किसे कहते हैं? 

उत्तर है : 

स्मृति के रूप में अन्यत्र कहीं पहले देखे गए किसी विषय का पुनः स्मरण होना। इसे ही कुछ दूसरे लोग, पहले देखे गए उन विषयों के धर्म का 'अध्यास', अर्थात् (धर्म को) पुनः स्मरण किया जाना कहते हैं।

और कुछ दूसरे लोग, यह कहते हैं कि यह जो 'अध्यास' है, यह विवेक के आग्रह को बाँधनेवाला 'भ्रम' है। 

और कुछ दूसरे लोगों के मतानुसार तो, जहाँ जो 'अध्यास' है, उसके नितांत विपरीत धर्म की कल्पना को ही 'अध्यास' कहा जाता है। (जो भी हो,) किन्तु यह तो स्पष्ट ही है कि इनमें से किसी भी एक के धर्म को दूसरे में सर्वथा यथावत् नहीं पाया जा सकता - अर्थात् विषय और विषयी के,  - युष्मत् और अस्मत् के धर्म परस्पर समान नहीं हो सकते। एक के धर्म में दूसरे के धर्म दिखाई नहीं पड़ते, इसलिए ऐसा आरोपण दोषपूर्ण है। 

लोक (संसार) में भी यही देखा जाता है - सीप (शुक्ति) में रजत की प्रतीति, एक ही चन्द्र (अलग अलग तिथियों में) किसी दूसरे जैसा देखा जाता है। 

फिर,  प्रत्यक्-आत्मा में, विषय में उनके धर्मों का अध्यास कैसे किया जा सकता है? 

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"युष्मदस्मत्प्रत्ययगोचरयोर्विषयविषयिणोस्तमःप्रकाशविरुद्ध- स्वभावयोरितरेतरभावानुपपत्तौ सिद्धायां तद्धर्माणमपि ...

कथं पुनः प्रत्यगात्मन्यविषयेऽध्यासो विषयतद्धर्माणाम् ।"

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(ब्रह्मसूत्र प्रस्तावना, शाङ्करभाष्यम् - समन्वयाध्यायः,

प्रथमाध्याये प्रथमः पादः अधिकरण १, सूत्र १)

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मंतव्य और वक्तव्य 

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क्या विचार के अभाव में संबंध होता है? 

क्या संबंध के अभाव में विचार होगा है? 

जिसका भी विचार होता है, उससे ही संबंध होता है, ओर जिससे संबंध होता है उसका ही विचार भी होता ही है।

विचार है वक्तव्य, संबंध है वस्तुस्थिति। 

वक्तव्य भाषा पर आश्रित होता है इसलिए विचार भी भाषा की ही उत्पत्ति है। 

क्या भाषा के अभाव में वक्तव्य हो सकता है? 

क्या वक्तव्य के अभाव में विचार हो सकता है? 

किन्तु फिर भी, संबंध होने पर वक्तव्य की संभावना हो सकती है। इसी प्रकार भाषा के होने पर वक्तव्य जो शाब्दिक रूप ग्रहण कर लेता है, उसे विचार कहा जाता है। 

इसलिए एक से अधिक मनुष्यों के बीच वक्तव्य के संप्रेषण के साधन की तरह विचार महत्वपूर्ण होता है। विचार किसी भौतिक वस्तु के विषय में तो अपने मंतव्य को वक्तव्य का रूप प्रदान कर सकता है, किन्तु जहाँ किसी भाववाचक वस्तु के विषय में कोई मंतव्य होता है, वहाँ विचार संप्रेषण हो पाने के लिए अपर्याप्त हो सकता है। उदाहरण के लिए भूख, प्यास, निद्रा, जागृति, भय, राग, क्रोध, ईर्ष्या, लोभ, सुरक्षा, चिन्ता आदि जैसी भाववाचक वस्तुओं  के लिए जो शब्द चुने जाते हैं वे किसी अर्थ के द्योतक होते हैं, जिसे संप्रेषित करना आसान होता है, और उस अर्थ को ग्रहण करने में कोई कठिनाई भी नहीं होती। इस प्रकार मंतव्य से वक्तव्य, वक्तव्य से भाषा, तथा भाषा से विचार का उद्भव होता है। किन्हीं दो मनुष्यों के बीच संवाद या बातचीत के लिए विचार उपयोगी है, इसमें संदेह नहीं, किन्तु मनुष्य में विचार की स्मृति से ही जो वैचारिक गतिविधि प्रारंभ होती है, वह भी दो प्रकारों से हो सकती है : प्रथम प्रकार में, विचार स्मृति से ही प्रकट होकर पुनः स्मृति में ही विलीन हो जाता है। दूसरे प्रकार की गतिविधि में विचार जिस विषय के संबंध में होता है, उस विषय पर ध्यान दिया जाता है, और तब विचार की गतिविधि विवेचनात्मक होती है । किन्तु इस स्थिति में भी, पुनः विषय-परक अथवा स्व-परक हो सकती है। विषय-परकता क्या है इसे तो सभी जानते ही हैं, किन्तु स्वपरकता क्या है इस बारे में ऐसा कहा जा सकता है कि इसके भी पुनः दो विशिष्ट भेद हैं : 

एक है, -व्यावहारिक धरातल पर अपने आभासी अनित्य स्व को एक विषय की तरह ग्रहण करते हुए, उस स्व के बारे में होनेवाली विचार की विवेचनात्मक गतिविधि,

दूसरी है, -आत्मा क्या है, इस प्रश्न के उत्तर को खोजने, जानने की उत्कंठा से उत्स्फूर्त होकर प्रारंभ होनेवाली, अपने स्वरूप की वह जिज्ञासा, जो विचार-मात्र का,और अंततः वैचारिकता का भी अतिक्रमण कर जाती है।

इस प्रकार विचार एकाधिक मनुष्यों के बीच विचार विनिमय का  साधन हो सकता है, या अपने ही भीतर अपने होने के तात्पर्य के बोध का साधन भी हो सकता है।

विषय-परक विचार अनिवार्यतः और सदैव ज्ञात की सीमा में ही बँधा होता है, जहाँ 'नए' के आविष्कार की न तो कोई संभावना, और न ही कोई कारण या प्रेरणा होती है । यदि कुछ नया प्राप्त होता हुआ प्रतीत होता भी है तो वह ज्ञात- का ही नया संस्करण भर होता है और ज्ञात से सीमित होता है। यह ज्ञात, अवश्य ही तथाकथित वैज्ञानिक (logical / rational) आधार पर की गई कोई विवेचना हो सकता है, किन्तु यह भी केवल उन्हीं तथ्यों का पुनरुद्घाटन मात्र होता है, जिन्हें अब तक 'अज्ञात' की कोटि में रखा गया था। इसलिए विज्ञान समस्त ज्ञात / ज्ञान को नियमों, परिभाषाओं की सीमा तक ही निर्धारित और सुनिश्चित कर पाता है। वह उन नियमों का आविष्कार तो करता है, किन्तु वे नियम अस्तित्व में क्यों हैं, इसका कोई संतोषजनक कारण इंगित नहीं कर पाता।

विज्ञान, क्या कभी 'ज्ञाता' (के स्वरूप) के विषय में सुनिश्चित रूप से कुछ परिभाषित कर पाता है? 

ज्ञाता तो स्पष्ट ही यही है जिसे 'स्व' कहा जाता है। 

वस्तुतः क्या 'स्व' का यह तत्व ही 'ज्ञाता' नहीं है?

विचार के अभाव में संबंध नहीं हो सकता। 

संबंध के अभाव में विचार भी नहीं हो सकता। 

भौतिक वस्तुओं के बारे में तो यह सत्य है ही, भाववाचक या भावनात्मक, भावपरक वस्तुओं के बारे में भी यही सत्य है। 

स्पष्ट है कि ज्ञाता के ही भौतिक स्थूल, इन्द्रियग्राह्य वस्तुओं से,  और भावपरक, सूक्ष्म बुद्धिग्राह्य वस्तुओं से संबंधित होने पर ही तत्संबंधित विचार का आगमन होता है। 

ज्ञाता, क्या अपने आप से पृथक्, अथवा विच्छिन्न होता है, या ज्ञाता क्या कभी अपने आप के बारे में विचार (का प्रयोग) कर भी सकता है? 

यदि यह प्रश्न तर्कसंगत हो भी, तो भी इस प्रश्न का उत्तर इसी प्रश्न में ही छिपा है ।

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Sunday 15 August 2021

एकोऽहं बहुस्यामि

अद्य रचितम् मया 

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एकोऽहं बहुस्यामि अहङ्काराणि पृथक् पृथक् ।

एकस्मिन् पृथक्भूत्वा तथापि न पृथक् पृथक् ।।

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Friday 13 August 2021

संबंध या भूमिका?

Virtual Existence.

संबंध या स्मृति? 

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क्या वस्तुतः किसी का किसी से कोई संबंध होता, या हो सकता है? संबंध होता है, या संबंध की स्मृति होती है, जो सतत बदलती ही रहती है? फिर जीवन में 'दूसरों' का, या 'दूसरों' के संदर्भ में अपने आपका क्या महत्व है? क्या यही नहीं कि हर वस्तु, स्थान, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति, प्रसंग की कोई भूमिका होती है, हम सब जिससे परस्पर सतत संबंधित और असंबंधित होते रहते हैं।

परंतु स्मृति के सातत्य के कारण उस वस्तु, स्थान, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति, प्रसंग के काल्पनिक होने के तथ्य को आवरित कर उसके नित्य होने का भ्रम पैदा हो जाता है। इस प्रकार प्रत्येक मनुष्य अपना एक आभासी अस्तित्व (virtual existence) कल्पित कर लेता है, जिसकी सत्यता संदिग्ध होती है। 

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क्या कर रहे हो?

"सुनना", "देखना" और "सोचना" --©-- उनसे बातचीत करने के लिए कोई विषय न मेरे पास है, और न उनके पास है। इसलिए धीरे...