निर्णय, भान, विषयी
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कोई विषय हमें आकर्षित करता है।
कोई विचार हमें आकर्षित करता है।
कोई विषय हमें विकर्षित करता है।
कोई विचार हमें विकर्षित करता है।
कोई विषय / विचार हममें कोई भावना जागृत करता है।
कोई विषय / विचार तो हमें छूता तक नहीं।
कोई विषय / विचार स्मृति से एकाएक ऊपर उभर आता है।
अच्छे और बुरे की भावना, प्रिय और अप्रिय की भावना, लज्जा या शर्म, संशय, चिन्ता, व्यग्रता, व्याकुलता, सुरक्षा, क्रोध, लोभ, असमंजस, आशा और निराशा, ग्लानि, और ऐसी दूसरी भी कई भावनाएँ सभी किसी विषय के सामने आते ही प्रायः जागृत हो उठती हैं। इनमें शायद सर्वाधिक विशिष्ट और इनसे कुछ भिन्न और विलक्षण भावना होती है जिसे भविष्य अथवा भूतकाल कहा जाता है।
इस पूरी वास्तविकता पर शायद ही कभी हमारा ध्यान जाता हो, किन्तु यह तो जीवन की रीति ही होती है। हम सचेत रहें या न रहें, जीवन की गतिविधि रुकती नहीं।
या तो हम जीवन की इस गतिविधि के प्रति सजग और सचेत होते हैं, या बाहरी परिस्थितियों, या अपने संस्कार के दबाव में किसी हद तक भावनाओं को वश में कर लेते हैं।
फिर भी, जब इस प्रकार किन्हीं भावनाओं या किसी एक को भी वश में कर लिया जाता है, तो वे मन की गहराई में कुंठित होकर दबी रहकर कुलबुलाती रहती हैं और अनुकूल परिस्थिति होने पर अकस्मात् फूट पड़ती हैं।
इस पूरी प्रक्रिया के होने में वैसे तो समय लगता है, किन्तु समय भी क्या विचार या भावना (या एक साथ दोनों ही) नहीं होता? 'समय', जिसे अभी अभी 'प्रक्रिया' पर आरोपित किया गया?
यह 'समय' नामक वस्तु क्या कोई भौतिक राशि है? क्या इस 'समय' की, दूसरी भौतिक वस्तुओं की तरह से माप-जोख की जा सकती है? क्या इसे मापने-तौलने का विचार या कल्पना भी निरर्थक और हास्यास्पद नहीं है?
भावना एक जीवंत, प्राणवान, जीवित तथ्य है, -कोई जड या भौतिक वस्तु नहीं, किन्तु उसे नाम या कोई शब्द दिए जाते ही 'विचार' पैदा होता है और तब भावना ही स्मृति में रूपान्तरित हो जाती है। एक ही समय पर ऐसी अनेक भावनाओं की स्मृति होने पर उनकी परस्पर तुलना की जाने लगती है, जो 'विचार' की ही सहायता से संभव होता है।
भावना को शब्द या नाम दिए जाते ही,
"मुझे पता है।", या "पता है।"
इस प्रकार के ज्ञान का भ्रम हममें पैदा हो जाता है।
फिर ऐसी ही किसी भावना से प्रेरित व्यवहार या आचरण को 'कार्य' / 'कर्म' कहा जाता है, और पुनः उस कार्य तथा ऐसे ही असंख्य कार्यों को घटना के रूप में स्मृति में संजो लिया जाता है।
इसी तरह एक सर्वाधिक प्रमुख भावना, जो निरंतर उत्पन्न होती है, और उतनी ही शीघ्र विलीन भी होती रहती है, वह है - अपने होने, या अस्तित्व से अपने भिन्न और पृथक् होने की भावना।
यही भावना, अपनी आभासी निरंतरता से, बुद्धि में अपने कुछ विशिष्ट और अस्तित्व / संसार से पृथक् कुछ होने के अनुमान और फिर स्मृति में ढल जाती है, जो क्रमशः दृढ और स्थायी हो जाती है। इसे ही बोलचाल की भाषा में "मैं" शब्द से व्यक्त किया जाता है और इस प्रकार अपने व्यक्तित्व का जन्म होता है।
यद्यपि यह "मैं" सबके लिए अपने नितांत निजी प्रयोग की वस्तु होता है, फिर भी इस शब्द को सब प्रयोग करते हैं और किसी को इससे कोई दुविधा भी नहीं होती, किन्तु इस प्रकार इस शब्द के जिस तात्पर्य को ग्रहण किया जाता है, उससे मनुष्य अपने तथा अपने संसार के बीच आभासी और कृत्रिम विभाजन की एक काल्पनिक दीवार खड़ी कर लेता है।
इस प्रकार से असंख्य व्यक्तियों के अपने अपने संसार होते हैं जो एक दूसरे से अत्यंत भिन्न और पृथक् होते हैं। फिर भी प्रत्येक का एक सर्व-सम्मत संसार / भौतिक विश्व भी है ही, जिसे हर मनुष्य अपनी जाग्रत अवस्था में अनुभव करता है।
मनुष्य-मात्र में अपने और अपने संसार के बीच का यह कृत्रिम और काल्पनिक, वैचारिक विभाजन "मैं" शब्द के सतत प्रयोग से निरंतर दृढ होता रहता है।
यह भी कहा जा सकता है कि पशु-पक्षियों और अन्य जीवित कहे जानेवाले 'चेतन' / sentient प्राणियों में भी ऐसी भावना, उसकी निरंतरता तथा उसकी स्मृति भी होती ही होगी किन्तु वह केवल शरीर और शरीर की स्मृति तक ही सीमित रहती होगी। उनके पास कहने के लिए शायद ही "मैं" जैसा या कोई और शब्द होता होगा जिससे वे अपनी स्मृति में वैसी कोई प्रतिमा बना सके जैसी कि मनुष्य बना लेता है।
इस समूची वास्तविकता का भान हो जाने पर, और इस प्रकार से इसका अवलोकन कर लेने पर, क्या (मन में) कोई नई भावना जागृत होती है?
स्पष्ट है कि 'मन' भी ऐसा ही एक शब्द है जो भावना के प्रभाव के रूप में उस भावना के अर्थ का द्योतक है, -न कि ऐसी कोई वास्तविकता। क्या यह मन, मूलतः भावना ही नहीं है, जो यद्यपि क्षण क्षण बदलती रहती है, किन्तु उसका अस्तित्व कभी समाप्त नहीं होता?
इस विवेचना को, विचार की सहायता से किसी शास्त्र से संबद्ध कर शास्त्र रूपी वैचारिक क्रम भी दिया जा सकता है, और भ्रम को और अधिक दृढता प्रदान की जा सकती है, लेकिन वह सिर्फ़ वैचारिक भूल-भुलैया में अंतहीन भटकाव होगा।
विषय (object) और विषयी (subject) के रूप में जागरूक होना, सचेत होना, भान होना, -क्या पुनः भावना ही नहीं है?
कभी हम सचेत होते हैं, जो भान होने से ही संभव होता है। कभी हम अचेत होते हैं तो उस अवस्था में -भान नहीं था, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि पुनः सचेत होने पर भी हमें स्पष्टता से इसका पता निश्चयपूर्वक होता है, कि हम तब भी थे, और तब भी हमें अपने होने की जागृति थी ही। इसकी तुलना अपनी निद्रावस्था से भी की जा सकती है।
कभी हम जानकारी / विचार का आधार लेकर सचेत होते हैं, जो शायद यांत्रिक, स्मृतिगत, और अभ्यासजनित होता है, वह सदैव ज्ञात की सीमा के अंतर्गत ही होता है।
किन्तु अपने होने का स्वाभाविक भान, अस्तित्व के प्रति सचेत होना, यह सजगता, यह जागृति, क्या अभ्यासजनित होती है?
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