मुझे पता नहीं है,
-यह भी पता न होना!
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मैं और 'मेरा मन' कहते ही हम इस भ्रम में फंस जाते हैं कि मैं और मन एक दूसरे से अलग दो वस्तुएँ हैं। फिर भी यह तो नहीं पता चलता कि हम मन के स्वामी हैं या मन हमारा! जब तक यह भ्रम नहीं मिटता तब तक हम असुविधा और संशय से ग्रस्त रहते हैं।
एक टोकरी में तीन आम हैं, दूसरी टोकरी में चार आम हैं। तीन आमों को पहली टोकरी से निकालकर दूसरी टोकरी में रख दें तो संख्या की दृष्टि से दूसरी टोकरी में सात आम तथा पहली में शून्य आम हो जाएँगे।
किन्तु आम की दृष्टि से एक ही फल दोनों टोकरियों में पहले भी था और बाद में भी रहा।
चूँकि संख्या भी एक मान्यता ही है, इसलिए सांख्य दर्शन में मूल रूप से एक ही तत्व है जिसे पुरुष कहा जाता है, जो कि चेतन है तथा दूसरा उसकी चेतना के आलोक में प्रकट होनेवाला मन या बुद्धि है। इसलिए मन या बुद्धि में चेतना और जगत् दोनों को ही देखा जा सकता है इसलिए मनुष्य "मेरा मन" ही कहता है, न कि "मैं मन का"!
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