Sunday 20 November 2022

You have become!

My very own Being!

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You have become, 

My own very Being, 

Yet you are not,

Part of my Being!

You were and are, 

My own very Being, 

Though I am not,

Part of, or Your Whole Being! 

I'm Bigger or same as than, 

You or your very Being! 

But when I think of You,

I appear to be You,

You appear to be I!

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आत्म-रहस्य 

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श्रीमद्भगवद्गीता, 

अध्याय ६,

मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना।।

मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थितः।।४।।

न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम्।।

भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः।।५।।

यथाकाशस्थितो नित्यं वायुः सर्वत्रगो महान्।।

तथा सर्वाणि भूतानि मत्स्थानीत्युपधारय।।६।।

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Saturday 19 November 2022

श्रद्धा अजन्मा!

श्रद्धा !!

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वह अजा,

वह अमरता, 

मनु की सहधर्मिणी, 

श्रद्धा अजन्मा,

निराकार हृदय में, 

साकार, वही सर्वत्र,

मनु के हृदय में, 

प्रकृतिरूपा सतत चंचल,

भावनारूपा निष्ठा अचला।

कर्म-रूपा, काम-रूपा,

सृष्टि-रूपा, नाम-रूपा।

वही हो गई विखंडित,

ज्ञान-रूपा, कर्म-रूपा।

मनुज में वह वृत्ति-रूपा,

अस्मिता वह बुद्धि-रूपा।

बुद्धि-रूपा, कर्म-रूपा,

काम-रूपा, धर्म-रूपा, 

कामाख्या, छिन्नमस्ता,

अपने ही चार रूप,

काटकर निज मस्तक, 

पाँचो मुखों की रक्त-पिपासा

को वह शान्त करती!

श्रद्धा वह नित्य अमर,

जन्म-मृत्यु रहित जीवन!

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कविता / उज्जैन -१९-११-२०२२,



 





अजा एका लोहितकृष्णशुक्ला ... हि सा।। 

ज्ञाज्ञौ द्वावजावीशनीशावजा ह्येका भोक्तृभोगार्थयुक्ता।

अनन्तश्चात्मा विश्वरूपो ह्यकर्ता त्रयं यदा विन्दते ब्रह्ममेतत्।।

(श्वेताश्वतरोपनिषद्)


Friday 11 November 2022

नींद : एक कविता

यह जो है नींद;

क्या है! 

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हमारी पूरी ज़िन्दगी का शायद एक तिहाई समय तो नींद में बीत जाता होगा, फिर भी हम तो क्या बड़े बड़े साइन्टिस्ट तक अभी तक इसे ठीक से नहीं जान पाए होंगे, कि यह नींद है क्या! यद्यपि पातञ्जल योगदर्शन में निद्रा को वृत्ति कहा गया है किन्तु निद्रा के स्वरूप को इस प्रकार से परिभाषित किया गया है --

अभाव-प्रत्यययालम्बना वृत्तिर्निद्रा।।१०।।

(समाधिपाद)

यद्यपि निद्रा को माण्डूक्य उपनिषद् में जिस तरह से परिभाषित किया गया है वह भी दृष्टव्य है --

यत्र सुप्तो न कञ्चन कामं कामयते न कञ्चन स्वप्नं पश्यति तत्सुषुप्तम्। सुषुप्त स्थान एकीभूतः प्रज्ञानघन एवानन्दमयो ह्यानन्दभुक्चेतोमुखः प्राज्ञस्तृतीयः पादः।।५।।

तात्पर्य यह कि मन अर्थात् चेतना (consciousnesses) / ध्यान (attention) जहाँ न तो किसी कामना से संलग्न होती है न किसी स्वप्न को देखती है वह मन की सुषुप्त अवस्था है।  यह सामान्य मनुष्य की सुषुप्ति का वर्णन हुआ। 

श्रीमद्भगवद्गीता में एक ही श्लोक में, सुषुप्ति का वर्णन दो रूपों में किया गया है --

या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।।

यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनिः।।६९।।

(अध्याय २)

यह भी कहा जा सकता है कि उपरोक्त श्लोक में निद्रा का तो नहीं, जागृति के ही दो प्रकारों का वर्णन किया गया है!




Tuesday 8 November 2022

तक्षशिला

गान्धार देश

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वाल्मीकि रामायण उत्तरकाण्ड सर्ग १००

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कस्यचित् त्वथ कालस्य युधाजित केकयो नृपः।।

स्वगुरुं प्रेषयामास राघवाय महात्मने।।१।।

गार्ग्यमङ्गिरसः पुत्रं ब्रह्मर्षिममितप्रभम्।। 

दश चाश्वसहस्राणि प्रीतिदानमनुत्तमम्।।२।।

कम्बलानि च रत्नानि चित्रवस्त्रमथोत्तमम्।।

रामाय प्रददौ राजा शुभान्याभरणानि च।।३।।

श्रुत्वा तु राघवो श्रीमान् महर्षिं गार्ग्यमागतम्।।

मातुलस्याश्वपतिनः प्रहितं तन्महाधनम्।।४।।

प्रत्युद्गम्य च काकुत्स्थः क्रोशमात्रं सहानुजः।।

गार्ग्यं सम्पूजयामास यथा शक्रो बृहस्पतिम्।।५।।

तथा समापूज्य तमृषिं तद् धनं प्रतिगृह्य च।।

पृष्ट्वा प्रतिपदं सर्वं कुशलं मातुलस्य च।।६।।

उपविष्टं महाभागं रामः प्रष्टुं प्रचक्रमे।।

किमाह मातुलो वाक्यं यदर्थं भगवानिह।।७।।

प्राप्तो वाक्यविदां श्रेष्ठः साक्षादिव बृहस्पतिः।।

रामस्य भाषितं श्रुत्वा महर्षिः कार्यविस्तरम्।।८।।

वक्तुमद्भुत्संकाशं राघवोपायचक्रमे।।

मातुलस्ते महाबाहो वाक्यमाह नरर्षभः।।९।।

युधाजित् प्रीतिसंयुक्तं श्रूयतां यदि रोचते।। 

अयं गन्धर्वविषयः फलमूलोपशोभितः।।१०।।

सिन्धोरुभयतः पार्श्वे पार्श्वे देशः परमशोभनः।।

तं च रक्षन्ति गन्धर्वाः सायुधा युद्धकोविदाः।।११।।

शैलूषस्य सुता वीर तिस्रः कोट्यो महाबलाः।।

तान् विनिर्जित्य काकुत्स्थ गन्धर्वनगरं शुभम्।।१२।।

निवेशय महाबाहो स्वे पूरे सुसमाहिते।।

अन्यस्य न गतिस्तत्र देशः परमशोभनः।।

रोचतां ते महाबाहो नाहं त्वामहितं वदे।।१३।।

तच्छ्रुत्वा राघवः प्रीतो महर्षेर्मातुलस्य च।।

उवाच बाढमित्येव भरतं चान्वैक्षत।।१४।।

सोऽब्रवीद् राघवः प्रीतः साञ्जलिप्रग्रहो द्विजम्।।

इमौ कुमारौ तं देशं ब्रह्मर्षे विचरिष्यतः।।१५।।

भरतं चाग्रतः कृत्वा कुमारौ सबलानुगौ।।

निहत्य गन्धर्वसुतान् द्वे पुरे विभजिष्यतः।।१७।।

निवेश्य ते पुरवरे आत्मजौ संनिवेश्य च।।

आगमिष्यति मे भूयः सकाशमतिधार्मिकः।।१८।।

ब्रह्मर्षिमेवमुक्त्वा तु भरतं सबलानुगम्।। 

आज्ञापयामास तदा कुमारौ चाभ्यषेचयत्।।१९।।

नक्षत्रेण च सौम्येन पुरस्कृत्याङ्गिरःसुतम्।।

भरतः सह सैन्येन कुमाराभ्यां विनिर्ययौ।।२०।।

सा सेना शक्रयुक्तेव नगरान्निर्ययावथ।।

राघवानुगता दूरं दुराधर्षा सुरैरपि।।२१।।

मांसाशिनश्च ये सत्त्वा रक्षांसि सुमहान्ति च।।

अनुजग्मुर्हि भरतं रुधिरस्य पिपासया।।२२।।

भूतग्रामाश्च बहवो मांसभक्षाः सुदारुणाः।।

गन्धर्वपुत्रमांसानि भोक्तुकामाः सहस्रशः।।२३।।

सिंहव्याघ्रवराहाणां खेचराणां च पक्षिणाम्।।

बहूनि वै सहस्राणि सेनाया ययुरग्रतः।।२४।।

अध्यर्धमासमुषिता पथि सेना निरामया।।

हृष्टपुष्टजनाकीर्णा केकयं समुपागत।।२५।।

इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकिये आदिकाव्ये उत्तरकाण्डे शततमः सर्गः।।१००।।

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सर्ग १०१

श्रुत्वा सेनापतिं प्राप्तं भरतं केकयाधिपः।।

युधाजित् गार्ग्यसहितं परां प्रीतिमुपागमत्।।१।।

स निर्ययौ जनौघेन महता केकयाधिपः।।

त्वरमाणोऽभिचक्राम गन्धर्वान् कामरूपिणः ।।२।।

भरतश्च युधाजिच्च समेतौ लघुविक्रमैः।।

गन्धर्वनगरं प्राप्तौ सबलौ सपदानुगौ।।३।।

श्रुत्वा तु भरतं प्राप्तं गन्धर्वास्ते समागताः।।

योद्धुकामा महावीर्या व्यनदंस्ते समन्ततः।।४।।

ततः समभवद्युद्धं तुमुलं लोमहर्षणम्।।

सप्तरात्रं महाभीमं न चान्यतरोजयः।।५।।

खड्गशक्तिधनुर्ग्राहा नद्यः शोणितसंस्रवाः।।

नृकलेवरवाहिन्यः प्रवृत्ताः सर्वतोदिशम्।।६।।

ततो रामानुजः क्रुद्धः कालस्यास्त्रं सुदारुणम्।।

संवर्तं नाम भरतो गन्धर्वेष्वभ्यचोदयत्।।७।।

ते बद्धाः कालपाशेन संवर्तेन विदारिताः।।

क्षणेनाभिहतास्तेन तिस्रः कोट्यो महात्मना।।८।।

तद्युद्धं तादृशं घोरं न स्मरन्ति दिवौकसः।।

निमेषान्तरमात्रेण तादृशानां महात्मनाम्।।९।।

हतेषु तेषु सर्वेषु भरतः केकयीसुतः।।

निवेशयामास तदा समृद्धे द्वे पुरोत्तमे।।१०।।

तक्षं तक्षशिलायां तु पुष्कलं पुष्कलावते।।

गन्धर्वदेशे रुचिरे गान्धारविषये च सः।।११।।

भरत के दो पुत्र तक्ष और पुष्कल --

मनोहर गन्धर्वदेश में तक्षशिला नाम की नगरी बसाकर उसमें राजकुमार भरत ने तक्ष को राजा बनाया और गान्धारदेश में पुष्कलावत मनगर बसाकर उसका राज्य पुष्कल को सौंप दिया।।

धनरत्नौघसंकीर्णे काननैरुपशोभिते।।

अन्योन्यसंघर्षकृते स्पर्धया गुणविस्तरैः।।१२।।

उभे सुरुचिरप्रख्ये व्यवहारैरकिल्बिषैः।।

उद्यानयानसंपूर्णे सुविभक्तान्तरापणे।।१३।।

उभे पुरवरे रम्ये विस्तरैरुपशोभिते।।

गृहमुख्यैः सुरुचिरैर्विमानैर्बहुभिर्वृतैः।।१४।।

दोनों श्रेष्ठ पैरों की रमणीयता देखते ही बनती थी। (विमान?)

शोभिते शोभनीयैश्च देवायतनविस्तरैः।।

तालैस्तमालैस्तिलकैर्बकुलैरुपशोभिते।।१५।।

निवेश्य पञ्चभिर्वर्षैर्भरतो राघवानुजः।।

पुनरायान्महाबाहुरयोध्यां केकयीसुतः।।१६।।

सोऽभिवाद्य महात्मानं साक्षाद्धर्ममिवापरम्।।

राघवं भरतः श्रीमान् ब्रह्माणामिव वासवः।।१७।।

शशंस च यथावृत्तं गन्धर्ववधमुत्तमम्।।

निवेशनं च देशस्य श्रुत्वा प्रीतोऽस्य राघवः।।१८।।

इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकिये आदिकाव्ये उत्तरकाण्डे एकाधिशततमः सर्गः।।१०१।।

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उक्त वर्णन के अनुसार गन्धर्वदेश तथा पुष्कलदेश दो भिन्न भिन्न स्थान प्रतीत होते हैं। किन्तु इसमें सन्देह नहीं कि हिन्दु / हिन्दू शब्द सिन्धु का ही अपभ्रंश / सजात / सज्ञात / cognate  है। 


Tuesday 1 November 2022

Of Bears & Bulls.

Hypothetical Realms

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I'm truly a slow-learner.

It takes really quite a long time before I can understand the real sense of a some simple-looking common phrase. Then some-day so unexpectedly the truth dawns upon me in a split second.

Going through a post about Wu Yajun, this happened today. Wu Yajun is so Famous a Chinese Billionaire. She lost $1 billion in a single day. 

At the time, when she resigned her  company "Longfor", in a single day the share-price of the company  tumbled down 38%.

That is it. I tried to understand the behavior of share-market. I mean the stock-exchange.

And the proverbial Bear and the Bull.

For quite a long time, even till this date, had been trying to understand what is a Bull and a Bear in that context.

Now I thought over the situation again. 

If I have some scrip and I see it's going to fall what I would do?

In the situation I can either hold it, sell away, or may buy more of the same, according to my expectation of the future-prospects of the same. If I think the price is likely to go down  presently, and I expect it to rise after a time, I can opt for either holding it or even buying it to gain advantage in future when the price would be ascending. 

Again if think I should sell down my stock, because at present I could gain profit over my investments, then I behave in a different and another manner.

In that case I'm either a Bull or a Bear.

I'm either Bullish or Bearish. 

Now I think, I can understand what it means when they say "the market is "Bullish and / or Bearish".

But as I never deal with money in any kind, and neither in the form of investment of any kind, I'm unaffected and unconcerned about the ups and downs of the market.

Frankly, when I think about share-market, I just think about how I can share a post on a social networking site! Sharing is enough. I expect nothing at all. Neither the "likes" nor further sharing, who views my posts, shares further. 

Just because I see, there is really no "future" as such at all, except when I think about it. 

I can see hope and fear are the consequence of thinking about the future. And So I'm no more in the grip of desire or fear.

Fear and desire, hope and apprehension are myths only, just like the sense of insecurity and security!

But still, one can perhaps see and enjoy too, how the people are so gripped, worried and concerned by the mere trivial thought of the hypothetical future, security, insecurity and the matters like money and market.

I ask to me :

Do I have really a future! Isn't future but a thought in the mind!

Then I see at once that likewise future the mind too is but a thought only that is there because of being alive. Being alive implies being Conscious. Being Conscious; not about this or that or even of myself, for as soon as the consciousness or 'being conscious' splits into -- 'being conscious of this and that, any-thing what-so-ever', sense of 'I' too emerges out as a consequence.

Thus sense of 'I' is again a phenomenon like the sense of this and that.

The individual consciousness 'I' is never the same as the prime, primordial consciousness that abides ever, irrespective of this or that or anything else that is external to it.

Mind is Consciousness. 

It is neither 'my', nor 'I' -any.

'I' is the individual.

There is no one as 'I' who-so-ever, who could claim thought as 'mine'.

Mind is its own realm, while thought its own. The two never meet!

'I' is 'Thought' and is thought in thought.

That is the ending / culmination of thought. 

Consciousnesses still abides.

In time and beyond, because time too is, - in thought and thought of, only.

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क्या कर रहे हो?

"सुनना", "देखना" और "सोचना" --©-- उनसे बातचीत करने के लिए कोई विषय न मेरे पास है, और न उनके पास है। इसलिए धीरे...