श्रद्धा !!
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वह अजा,
वह अमरता,
मनु की सहधर्मिणी,
श्रद्धा अजन्मा,
निराकार हृदय में,
साकार, वही सर्वत्र,
मनु के हृदय में,
प्रकृतिरूपा सतत चंचल,
भावनारूपा निष्ठा अचला।
कर्म-रूपा, काम-रूपा,
सृष्टि-रूपा, नाम-रूपा।
वही हो गई विखंडित,
ज्ञान-रूपा, कर्म-रूपा।
मनुज में वह वृत्ति-रूपा,
अस्मिता वह बुद्धि-रूपा।
बुद्धि-रूपा, कर्म-रूपा,
काम-रूपा, धर्म-रूपा,
कामाख्या, छिन्नमस्ता,
अपने ही चार रूप,
काटकर निज मस्तक,
पाँचो मुखों की रक्त-पिपासा
को वह शान्त करती!
श्रद्धा वह नित्य अमर,
जन्म-मृत्यु रहित जीवन!
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कविता / उज्जैन -१९-११-२०२२,
अजा एका लोहितकृष्णशुक्ला ... हि सा।।
ज्ञाज्ञौ द्वावजावीशनीशावजा ह्येका भोक्तृभोगार्थयुक्ता।
अनन्तश्चात्मा विश्वरूपो ह्यकर्ता त्रयं यदा विन्दते ब्रह्ममेतत्।।
(श्वेताश्वतरोपनिषद्)
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