Monday, 4 August 2025

The way of knowledge.

 Is Like :

Walking upon the double-edged sword :

A I  is verily this -- double edged sword! 

असि-धार-व्रतं -- शिलायाः हृदयं च यत्! 

--

नेति नेति नेतीति शेषितं यत् परं पदम्। 

निराकर्तुमशक्यत्वात्तदस्मीति सुखी भव।। 

जडतां वर्जयित्वैतां शिलाया हृदयं च यत्। 

अमनस्कं महाबाहो तन्मयः भव सर्वदा।। 

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न इति न इति न इति, इति शेषितं, यत् परं पदम्।

निराकर्तुम् अशक्यत्वात्, तत् अस्मि, इति सुखी भव।।

जडतां वर्जयित्वा एतां, शिलायाः हृदयं च यत्। 

अमनस्कं महाबाहो तन्मयः भव सर्वदा।।

--

गुरु पूर्णिमा के दिन तीन मित्र मिलने के लिए आए थे।

एक ने कहा -

माण्डूक्य उपनिषद्  की आनन्दगिरि टीका का अनुवाद सरल हिन्दी अर्थ में कर सकेंगे क्या!

दूसरे मित्र ने कहा -

जब ये सीधे ही माण्डूक्य उपनिषद् का सरल हिन्दी अर्थ कर सकते हैं तो किसी अन्य टीका का अर्थ और अनुवाद का परिश्रम क्यों किया जाए! 

अभी एक मित्र ने उपरोक्त दो श्लोकों का "सही अर्थ" क्या है, यह जानना चाहा तो मुझे याद आया।

शास्त्रज्ञान की यही मर्यादा है।

कोई दूसरा आपको जो शास्त्रज्ञान देता है उसे समझने के लिए बहुत धैर्य रखना और रुचि के साथ श्रम करना भी उतना ही आवश्यक होता है।

और इतना ही नहीं, फिर उसे प्रयोग भी करना होता है।

शास्त्रीय ज्ञान तो बौद्धिक भी हो सकता है,

और कंप्यूटर, ए आई की सहायता से,

उसकी विवेचना शायद और अधिक अच्छी तरह से कर सकता है।

इस सबमें बुद्धि का कार्य होता है जो बुद्धि तक ही सीमित रह जाता है। 

सैद्धांतिक दृष्टि से आप संतुष्ट हो भी सकते हैं या शायद न भी हो सकें। बुद्धि का अधिक प्रयोग थका भी सकता है।

मनस्कमन्यमनस्कं च विमनस्कमपि यच्चित्तम्।

चिति उदीयते चिति एव विलीयते तच्चित्तम्।।

चित्तं चिद्विजानीयात् त-कार रहितं यदा। 

त-कार विषयाध्यासो विषयविषयिनोः भेदतः।।

यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति।

तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च।।

***

 

 

 

 


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