Saturday, 19 July 2025

FORE-WORD

  भूमिका-प्रस्तावना-उपसंहार  

पिछले पोस्ट में मैंने वर्ष में 2025 में पूर्ण होने जा रही अर्धशती के बारे में लिखा। किन्तु जीवन तो एक सतत अविरल, अविच्छिन्न प्रवाह है जिस पर टुकड़े टुकड़े में समय  को आरोपित कर दिया जाता है और वही प्रवाह तब कल्पित व्यक्ति और समाज की तरह आभासी रूप लेकर मन में विभाजित प्रतीत होने लगता है। और यहाँ से कठिनाई प्रारंभ हो जाती है। व्यक्ति के रूप में अपने अस्तित्व की प्रतीति और समाज के रूप में अपने जैसे दूसरे मनुष्यों की प्रतीति, इन दो प्रतीतियों के बीच सतत, कभी समाप्त न होनेवाला एक छद्मयुद्ध शुरू हो जाता है। और उसी तल पर जीवन और अस्तित्व के कल्पित  प्रयोजन और अर्थ के खोज की एक अंतहीन दौड़ भी।

इसे ही वैचारिकता या बौद्धिकता कहा और समझा भी जाता है। श्रीमद्भगवद्गीता के पाँचवे अध्याय के निम्न तीन श्लोक मुझे हमेशा प्रासंगिक प्रतीत होते हैं -

न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः।

न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते।।१४।।

नादत्ते कस्यचित्पापं सुकृतं चैव न विभुः।

अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः।।१५।।

ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितं आत्मनः।

तेषां आदित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत् परम्।।१६।।

उपरोक्त श्लोकों में जिसे अज्ञान कहा गया है, और जिसे  ज्ञान कहा गया है, उस ज्ञान और अज्ञान के बीच प्रतीति का एक झीना पार्थक्य या एक पर्दा है, और वही वस्तुतः वैचारिकता या बौद्धिकता है। जिस अर्धशती का इससे पहले के पोस्ट में उल्लेख किया गया उस कल्पित समय / कालखंड में (अपनी) चेतना में दो ही गतिविधियाँ चल रही थीं। पहली सूचना-तंत्र के प्रयोजन, आवश्यकता  और औचित्य पर प्रश्न के रूप में, और दूसरी थी (अपनी) चेतना को इस सारे समस्त जानकारी रूपी तथाकथित ज्ञान से निरन्तर रिक्त करते रहने की। यह सब अनायास हो रहा था और इस सबके होने से भी पहले अवलोकन / observation का महत्व स्पष्ट हो चुका था। वही एकमेव चेतना और ऊर्जा जो कि चेतना और ऊर्जा इन दोनों दो अलग अलग भिन्न प्रकारों में अभिव्यक्त और प्रतीत होती है, बौद्धिकता या इस तथाकथित ज्ञान का निरसन / emptying  हो जाते ही  अवलोकन / observation के रूप में कार्य करने लगती है। तब अवलोकन / observation की अग्नि में सारा ज्ञात जलकर इस प्रकार विलीन हो जाता है कि उसका प्रकाश तो यह जाता है, उसकी राख / भस्म शेष नहीं रह जाती। चूँकि तब यह दिखाई देने लगता है कि यह व्यक्ति चेतना, यह मैं-रूपी व्यक्ति और समाज रूपी यह बौद्धिकता एक ही मिथ्या वस्तु के, एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, दोनों दो पृथक् पृथक् और भिन्न भिन्न वस्तुएँ नहीं हो सकते।  

उस चेतना / ऊर्जा के प्रवाह में सब कुछ अनायास होता है क्योंकि तब वहाँ न तो प्रयास होता है और न व्यक्ति-मैं की तरह प्रयास करनेवाला कोई और। और न कोई अन्य जिसके संबंध में प्रयास किया जाना संभव हो।

पिछले 35 वर्षों में यही सब अनायास ही होता रहा है। इसलिए यह कहना बेमानी होगा कि मैंने कुछ किया। यह इस चेतना और ऊर्जा की ही एकमात्र गतिविधि थी, और है जो कि अपना कार्य करती रहती है।

पिछले 15 वर्षों में आभासी  समय  के इस प्रवाह में वर्ष 2009 से अब तक मोबाइल और कंप्यूटर के माध्यम के संपर्क में आ जाने के बाद ब्लॉग नामक सुविधा, लिखते रहने का एक सशक्त आधार बन गई। यद्यपि इस उपक्रम को जारी रखने में श्रम का भी योगदान महत्वपूर्ण था जो वस्तुतः उत्साह के कारण और उत्साह की अभिव्यक्ति ही था। ब्लॉग लिखते रहने से यह हुआ कि चेतना / ऊर्जा को एक दिशा दिखाई देती रही, और यद्यपि इस सुविधा से उत्पन्न इसके कुछ गौण तथा अवांछित प्रतिफलों का सामना भी करना पड़ा पर चूँकि मुझे शुरू से ही किसी से विचार-विनिमय करने में न कोई रुचि थी और न कभी आवश्यकता ही प्रतीत हुई, इसलिए सोशल मीडिया से न्यूनतम संबंध रखना उचित जान पड़ा। आज भी सारे विश्व में कहाँ क्या हो रहा है, यही जिज्ञासा आभासी वर्तमान से जोड़े रखती है, और उसी मर्यादा में मीडिया का उपयोग मुझे है। तो यह है मेरे ब्लॉग लिखे जाने की भूमिका और उपसंहार भी, जिसे कि प्रेरणा भी कहा जा सकता है। विवाद और विचारों का आदान-प्रदान करने से तो यथासंभव दूर ही रहना अच्छा लगता है।

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