Saturday, 16 August 2025

KAIVALYAM

प्रथम और अन्तिम 

समाधिपाद 

अथ योगानुशासनम्।।१।।

कैवल्यपाद 

पुरुषार्थशून्यानां गुणानां प्रतिप्रसवः कैवल्यं स्वरूपप्रतिष्ठा वा चितिशक्तिरिति।।३४।।

(पाठान्तरम्--

पुरुषार्थशून्यानां गुणानां प्रतिप्रसवः कैवल्यं स्वरूपप्रतिष्ठा वा चितिशक्तेरिति।।)

चित् स्वयं ही शक्ति है और उस शक्ति के ५२ धाम हैं, जिन्हें शक्तिपीठ कहा जाता है। इनमें से प्रत्येक तीन तरत् हार्द / Tarot Card / The flowing heart है। प्रत्येक तीन फलकों / planes / चित्रों से बना है - जैसे कैलिडोस्कोप / Kaleidoscope के तीन फलक होते हैं। चितिशक्ति के तीन अ-त्रिभूत (attributes) यही हैं। यही चित् रूपी अ-त्रि नामक ऋषि हैं, जिनकी अर्द्धांगिनी है अनसूया प्रकृतिः।

सूयते, न सूयते वा कश्चित् किमपि वा सा अन्-असूया इति। असूया-रहिता, रहसि स्थिता।

चतुर्दशः भुवनाः मनोमयाः।।

सा त्रिगुणात्मिका अनसूया सृजति चतुर्दश-भुवनात्मकं मनोमयं जगदिदम्।।

तस्याः हि द्विपञ्चाशतमात्मकानि धामानि एतानि तरत् हार्दानि  Tarot Cards.

अत्र एकैकं धाम वा शक्तिपीठं त्रिगुणात्मकम्।

इस प्रकार इस कलित / कालिका / कालिस्वरूपा शक्ति के प्रत्येक धाम में तीन तरत् हार्द / Tarot Card  होते हैं। जिनमें एक अधिष्ठान और दो अन्य (व्यक्त पुरुष तथा व्यक्त प्रकृति) होते हैं। यही जीव-भावरूपी जन्म-मरण भूख-प्यास, इच्छा तथा द्वेष युक्त चेतन अहंकार अर्थात् स्व है। शक्तिपीठ। जैसे चित्रात्मक तरत् हार्द या तालपत्रों से ताश के तीन पत्तों से रचित, अहंकार रूपी कोई एक स्वकीय जगत्। ऐसे १४ गुणित ३ अर्थात् ४२ हार्द सूत्रों और दशमहाविद्याओं से विरचित कुल ५२ चित्रों से बना यह संपूर्ण अस्तित्व सतत चिरस्थायी और चिरसामयिक प्रतीत होता है।

यही कालितो श्यप् प्रत्यय है। श्यप् प्रत्यय के प्रयोग में श् और प् का लोप होकर य शेष रहता है। श्यकः प-सयुजं श्कपः। तथा च  Kaleidoscope. 

यतो वा हि अस्मिञ्जगति यत्किञ्चन अनुभूयते। तत्रैव अनुभवमिदं प्रतीयते कश्चित् अनुभोक्तारुपेण।

इति हि कैवल्यम् ।

तरत्-हार्द तरद्धार्द स्मृतिः।।

पुरुषार्थशून्यानां गुणानां प्रतिप्रसवः कैवल्यं स्वरूपप्रतिष्ठा चितिशक्तिरिति।।

***

 



Monday, 4 August 2025

The way of knowledge.

 Is Like :

Walking upon the double-edged sword :

A I  is verily this -- double edged sword! 

असि-धार-व्रतं -- शिलायाः हृदयं च यत्! 

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नेति नेति नेतीति शेषितं यत् परं पदम्। 

निराकर्तुमशक्यत्वात्तदस्मीति सुखी भव।। 

जडतां वर्जयित्वैतां शिलाया हृदयं च यत्। 

अमनस्कं महाबाहो तन्मयः भव सर्वदा।। 

--

न इति न इति न इति, इति शेषितं, यत् परं पदम्।

निराकर्तुम् अशक्यत्वात्, तत् अस्मि, इति सुखी भव।।

जडतां वर्जयित्वा एतां, शिलायाः हृदयं च यत्। 

अमनस्कं महाबाहो तन्मयः भव सर्वदा।।

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गुरु पूर्णिमा के दिन तीन मित्र मिलने के लिए आए थे।

एक ने कहा -

माण्डूक्य उपनिषद्  की आनन्दगिरि टीका का अनुवाद सरल हिन्दी अर्थ में कर सकेंगे क्या!

दूसरे मित्र ने कहा -

जब ये सीधे ही माण्डूक्य उपनिषद् का सरल हिन्दी अर्थ कर सकते हैं तो किसी अन्य टीका का अर्थ और अनुवाद का परिश्रम क्यों किया जाए! 

अभी एक मित्र ने उपरोक्त दो श्लोकों का "सही अर्थ" क्या है, यह जानना चाहा तो मुझे याद आया।

शास्त्रज्ञान की यही मर्यादा है।

कोई दूसरा आपको जो शास्त्रज्ञान देता है उसे समझने के लिए बहुत धैर्य रखना और रुचि के साथ श्रम करना भी उतना ही आवश्यक होता है।

और इतना ही नहीं, फिर उसे प्रयोग भी करना होता है।

शास्त्रीय ज्ञान तो बौद्धिक भी हो सकता है,

और कंप्यूटर, ए आई की सहायता से,

उसकी विवेचना शायद और अधिक अच्छी तरह से कर सकता है।

इस सबमें बुद्धि का कार्य होता है जो बुद्धि तक ही सीमित रह जाता है। 

सैद्धांतिक दृष्टि से आप संतुष्ट हो भी सकते हैं या शायद न भी हो सकें। बुद्धि का अधिक प्रयोग थका भी सकता है।

मनस्कमन्यमनस्कं च विमनस्कमपि यच्चित्तम्।

चिति उदीयते चिति एव विलीयते तच्चित्तम्।।

चित्तं चिद्विजानीयात् त-कार रहितं यदा। 

त-कार विषयाध्यासो विषयविषयिनोः भेदतः।।

यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति।

तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च।।

***

 

 

 

 


Tuesday, 22 July 2025

28 July 2025

10 O'Clock!

Don't know am or pm,

I S T or G M T, 

But it's said, 

The Moon will go Retrograde.

Obviously,  for a fraction of a second,

For less than 0,001 second.

The Ancient Astrology,

And also the Modern Astronomy, 

Do agree to this.

Either there will be shock, 

That will render all living beings, 

Stunned for that brief moment, 

That would look like an eternity,

When the whole world would stand still, 

Or a part would go through spasms.

And the next moment will be,

An altogether different one, 

When everything would be different. 

Still the chaos and the disturbance,

The turmoil and the incoherence,

Would prevail and rule over. 

A new era would emerge out. 

May be some of us would be 

A witness to this phenomenon! 

***


को ज्ञाता को च दृष्टा!

जनक उवाच :

कथं ज्ञानमवाप्नोति कथं मुक्तिर्भविष्यति।। 

वैराग्यं च कथं प्राप्तं एतद्ब्रूहि मम प्रभु।।१।।

अष्टावक्र उवाच :

किङ्करो न जानाति किं कर्तव्यम्। 

स्वामी न जानाति अहं स्वामी। 

बुद्धिर्न जानाति किं कर्म को कर्ताऽपि

साक्षी पश्यत्येव न करोति किञ्चन्।

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Monday, 21 July 2025

Bitte hören Sie zu!

 सृजनम्  स्रवनम्  श्रवणम्

श्रवण मनन निदिध्यासन 

श्रुति

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काँवडयात्रा 

श्रवण कुमार के माता पिता नेत्रहीन थे और तीर्थयात्रा पर जाना चाहते थे। उस युग में, जिसे सतयुग कहा जाता है, यह मान्यता थी और इसे धर्म भी माना जाता था। वैदिक शिक्षा के अनुसार भी, माता-पिता की सेवा से बड़ा कोई पुण्यकर्म नहीं होता। 

चूँकि श्रवण कुमार के माता-पिता वृद्ध और नेत्रहीन थे , इसलिए श्रवण कुमार ने एक काँवड बनाकर उसके एक पलड़े पर पिता को और दूसरे पर माता को बैठाया और चल पड़े तीर्थयात्रा की उनकी इच्छा पूर्ण करने के लिए। बहुत से विविध तीर्थों की यात्रा पूरी हो जाने पर किसी समय वे विश्राम करने के लिए उस रास्ते पर रुके जो कि वन से होकर गुजरता था। उन्होंने एक सरोवर के किनारे माता-पिता को काँवड से उतारा और वे माता-पिता की प्यास बुझाने के उद्देश्य से जल लेने के लिए सरोवर तक पहुँचे। सरोवर से जल लेने के लिए उन्होंने जल के पात्र को सरोवर में डाला और डुब् डुब् की ध्वनि के साथ जल पात्र में भरने लगा। अभी पात्र आधा ही भरा था कि कहीं से सनसनाता हुआ एक तीर ने उनके हृदय को बेध दिया तो वे अचेत होकर वहीं गिर गए। अभी कुछ ही पल बीते होंगे कि एक नवयुवक वहाँ आ पहुँचा, जो कि कोई और नहीं, बल्कि अयोध्या के राजकुमार दशरथ थे। धनुर्वेद में प्रवीण और शब्दवेधी बाण चलाने में निष्णात। उन्होंने उस अंधेरे में डुब् डुब् का यह शब्द सुना तो उन्हें लगा कि कोई पशु सरोवर से जल पी रहा है। धनुर्विद्या की अपनी क्षमता से गर्व में वे डूबे हुए थे और उस पशु को देखने के लिए वहाँ आए थे जिसे उन्होंने शब्दभेदी बाण चलाकर मार डाला था। किन्तु जैसे ही उन्होंने देखा कि वह कोई पशु नहीं बल्कि उनके ही जैसा या उनसे कुछ कम आयु का नवयुवक था तो उनके तो पैरों तले से धरती खिसक गई। और बाद की कथा तो सभी को विदित ही है।

श्रवण कुमार के माता-पिता भी इस हृदय को विदीर्ण कर देनेवाले आघात को सह न सके और शीघ्र ही उन दोनों ने भी अपने प्राण त्याग दिए। "श्रवण" शब्द श्रु - श्रूयते धातु से बना है जिसका अर्थ है "सुनना" । इससे ही बना एक और शब्द है "श्रुति"। श्रुति का अर्थ है वेद-वाणी। पर्याय से इसलिए वेद की कहा जाता है। अंग्रेजी भाषा का शब्द "hear"   इसी संस्कृत पद श्रु का अपभ्रंश है और यही जर्मन भाषा मे hören  हो जाता है। और इसे "श्रवण" के अपभ्रंश के रूप में भी व्युत्पन्न किया जा सकता है।

The Art Of Listening.

जैसा ऊपर वर्णन किया गया, 'श्रुति' वेद-वाणी का श्रवण है और वेद का अध्ययन पाठ या श्रवण से भी किया जा सकता है। वेदमंत्रों की अर्थात् श्रुति की शिक्षा इस प्रकार से आचार्य द्वारा शिष्य को वाचिक परंपरा से ही दी जाती है, किन्तु फिर इसे लिपिबद्ध भी किया जाने लगा। पुनः,  वाचिक परंपरा से प्राप्त इस शिक्षा को ब्राह्मी (शारदा), नागरी / देवनागरी और श्रीलिपि के अतिरिक्त द्राविड में भी लिपिबद्ध किया जाने लगा। लोक-द्राविड के रूप में  प्राचीनतम तो தமிழ்  भाषा और लिपि ही थी, किन्तु अनेक कारणों से वह वेद-निष्ठ संस्कृत का विकल्प नहीं हो सकती थी। इसलिए भगवान् स्कन्द ने इसके परिष्कृत रूप ग्रन्थलिपि का आविष्कार किया।

वेद-मंत्रों का पाठ और श्रवण भी पात्र और अधिकारी मनुष्य के द्वारा किया जाना चाहिए। अनधिकारी और अपात्र के द्वारा ऐसा किया जाना अनिष्टप्रद होता है। इसीलिए शूद्र वर्ण के व्यक्ति शम्बूक का वध भगवान् श्रीराम के द्वारा किया गया और इसलिए शम्बूक को उत्तम गति और दिव्यप्राप्त की प्राप्ति हुई।

महाकवि कालीदास तृण रघुवंश और भवभूतिकृत उत्तररामचरितम् में भी इस कथा का वर्णन है।

ऐसा एक और उदाहरण कुन्ती का है जिसने अविवाहित अवस्था में ही सूर्य-अथर्वशीर्ष का पाठ सुन लिया और तब उसे संतान के रूप में सूर्य, इन्द्र और वायु इन तीनों देवताओं के पुत्रों को जन्म देना पड़ा था। सूर्यपुत्र कर्ण को तो लोकापवाद के भय से उसका जन्म होते ही नदी  प्रवाहित कर दिया गया था। यम के पुत्र युधिष्ठिर और वायुपुत्र भीम के अतिरिक्त इन्द्र के पुत्र अर्जुन थे।

भवभूतिकृत उत्तररामचरितम् और महाकवि कालीदास तृण रघुवंश में आप

रुद्र, गणपति, देवी, नारायण और सूर्य अथर्वशीर्ष में रुद्र सूर्य, यम, वायु (मातरिश्वा), स्कन्द, अग्नि, प्रणव, वरुण (आपः) और इन्द्र आदि को एक ही परमात्मा के अनेक प्रकारों में वर्णित किया गया है।

श्रावण / सावन में भगवान् शिव पर जलाभिषेक करने के लिए जाते हुए काँवडयात्रियों के बारे में पढ़ते हुए इस पोस्ट को लिखने की प्रेरणा हुई।

नमः शिवाय।। 

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Sunday, 20 July 2025

Know Thy Master!

हर किसी की एक ही चिरन्तन खोज!

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संस्कृत भाषा के मस्, और मज्ज् धातु से मस्तक तथा मस्तिष्क शब्द की उत्पत्ति होती है। अंग्रेजी भाषा में भी  mast और master दोनों शब्द इस अर्थ का अनुसरण करते हैं। जहाज में मस्तूल का उद्गम इसी मस् और मज्ज् धातु से है यह देखा जा सकता है। मज्ज् से ही अंग्रेजी भाषा के merge,  emerge  शब्द बनते हैं जो उसी अर्थ के द्योतक होते हैं।

इसी प्रकार अंग्रेजी में Master तथा जर्मन भाषा में Meister शब्दों का प्रयोग स्वामी के अर्थ में होता है-

Practice / Lesson makes one the Master.

Übung macht den Meister.

भारत में आध्यात्मिक मार्गदर्शक को "स्वामी" इसी अर्थ में कहा जाता है, और उससे मार्गदर्शन प्राप्त करनेवाले को शिष्य कहा जाता है। शिष्, शिष्यते, शास्, शासयति  धातुओं का प्रयोग शिक्षा देने और शेष रहने के अर्थ में और शासन करने के अर्थ में भी होता है। शिष्य के लिए एक शब्द "छात्र" भी होता है जिस पर किसी की छाया होती है, जो किसी की छत्रछाया में सुरक्षित रहता और पलता-बढ़ता है।

शिक्षा, शिष्य और शिक्षक के बीच सम्यक् और फलप्रद संवाद होने के लिए अपरिहार्यतः आवश्यक परिस्थितियों के बारे में तैत्तिरीय उपनिषद् के प्रारंभ में ही -

"शीक्षा-वल्ली"

में स्पष्टता से कह दिया गया है।  

आध्यात्मिक या धार्मिक शिक्षक से शिक्षा प्राप्त करने से पहले यह जानना महत्वपूर्ण होता है कि क्या वह हमारा वास्तविक शिक्षक है या हो सकता है?

और हम जिस स्थिति में हैं उस स्थिति में हमारे लिए यह संभव नहीं होता कि अपने लिए किसी सुयोग्य शिक्षक को पहचान कर सकें। क्योंकि यदि यह संभव होता तो हमें शिक्षक की आवश्यकता ही न होती।

यह इसलिए भी संभव नहीं है क्योंकि आध्यात्मिक ज्ञान सांसारिक विषयों के ज्ञान की तरह वैसा सूचना-परक ज्ञान - Information नहीं होता, जिसे कि पुस्तकों से पढ़कर सीखा जा सकता हो। तो कसौटी है यह प्रश्न कि आध्यात्मिक ज्ञान से हमारा क्या आशय है? शास्त्रीय आधार पर तो इसकी कसौटी यही है कि हममें पहले तो यह समझ उत्पन्न हो कि संसार और संसार में व्यतीत किया जानेवाले जीवन में सतत दुःख और शायद सुख भी आते जाते रहते हैं, और यद्यपि सुख आकर चला जाता है, दुःख आकर भी नहीं जाता और इस या उस रूप में जीवन के साथ लगा ही रहता है। और मान लें कि संयोगवश हमें सतत सुख ही सुख मिलता रहे तो हम उससे भी ऊब जाते हैं। यदि सुख न भी मिलें तो भी दुःखों के दूर होने की आशा तो होती ही है। और यह भी विचित्र बात है कि यद्यपि सुख मिलते भी रहें तो भी आनेवाले संभावित या अप्रत्याशित दुःखों की आशंका हमें सुख का निश्चिन्त होकर उपभोग भी नहीं करने देती।

इस प्रकार नेपथ्य में दुःख सतत बना रहता है और कभी कभी तथाकथित खुशी या सुख उस पर आवरित होकर हमें विस्मृत हो जाता है। और बहुत से दूसरे दुःख भी हर किसी को दिन प्रतिदिन चिन्ताग्रस्त किए रहते हैं ही। जब वह इन कष्टों से बुरी तरह त्रस्त हो जाता है तो कभी तो उनसे छुटकारा पाने के लिए जी जान लगाकर संकल्प कर लेता है, कभी सफल तो कभी असफल भी होता है, किन्तु बिरले ही कभी उसका ध्यान इस सच्चाई पर जा पाता है कि अन्ततः मृत्यु कभी न कभी अवश्य ही होगी ही और मृत्यु के बाद उसका क्या होगा इस बारे में भी कुछ पक्का पता नहीं है! 

अपने समाज और समुदाय विशेष के लोगों के संपर्क में रहने पर उसे लगता है कि उसका धर्म और उस धर्म की मान्यताएँ और मत ही एकमात्र अंतिम और पूर्ण सत्य है, जिन पर उसे विश्वास कर ही लेना चाहिए। ऐसा करना उसे सुविधाजनक भी लगता है। वह यह नहीं देख पाता है कि ऐसे भी अनेक समुदाय और सामाजिक व्यवस्थाएँ हैं, जिनकी धार्मिक मान्यताएँ उसके धर्म की मान्यताओं से विपरीत हैं और दुराग्रहपूर्ण भी हैं। इन सभी समुदायों के अपने-अपने समुदाय-प्रमुख भी होते हैं जिनके अपने अपने स्वार्थ होते हैं और वे अपने अनुयायियों पर वर्चस्व बनाए रखने के लिए हर तरह के हथकंडे अपनाया करते हैं। यह लगभग असंभव ही है कि किसी भी ऐसे धार्मिक मतों और मान्यताओं के आधार पर संगठित समुदाय का कोई सदस्य लोभ और भय से रहित होकर अपने विवेक के अनुसार स्वतंत्र रूप से धर्म क्या है? इस बारे में प्रश्न और जिज्ञासा पर सके। क्योंकि प्रत्येक धार्मिक समुदाय की अपना एक पारंपरिक और सुदृढ आधार भी होता है। उसके अपने मठ-मन्दिर, आश्रम और सत्ता-केन्द्र भी होते है, जो खुलकर, निर्लज्जतापूर्वक, छल-कपट के सहारे अपनी सत्ता का विस्तार करने में संलग्न रहते हैं। ऐसे ही लोग, जो किसी भी और हर प्रकार के समुदाय में ऊपर से ऊपर उठते चले जाते हैं, शीर्ष स्तर पर पहुँचकर पूरे समुदाय पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लेते हैं। यह क्रम कब से प्रारंभ हुआ कहना शायद कठिन हो, किन्तु रुचि और जिज्ञासा हो तो इस तथ्य को देख पाना और समझ सकना और अपने आपको इस सारे उपद्रवों से अलग कर लेना इतना कठिन नहीं है।

सौभाग्य से उनका जन्म भारत में हुआ और मेरी तरह वे भी भारतीय हैं। मेरी तरह वे भी कुछ खोज रहे हैं, और किसी खोज में संलग्न हैं। वे बहुत समय से इस खोज में संलग्न हैं, और अब तो उन्हें यह भी स्मरण नहीं रह गया है कि आखिर वे किस वस्तु को खोज रहे हैं। संक्षेप में - वे अपनी इस खोज के सिलसिले में यहाँ से वहाँ भटक रहे हैं। कभी सोचते हैं कि संन्यास लेकर किसी आश्रम में रहने लगें। उन्होंने संन्यास तो नहीं लिया किन्तु वे अनेक आश्रमों में कुछ दिनों या महीनों तक भी यह चुके हैं। और अब अपनी आयु के उस मोड़ पर हैं जिसे भारतीय आश्रम-परंपरा के विधान के अनुसार वानप्रस्थ आश्रम कहा जाता है। कुछ वर्षों पहले उनकी जीवन-संगिनी का निधन हो चुका है और बच्चे भी सुदृढ आर्थिक स्थिति से संपन्न हैं। वे तय नहीं कर पा रहे हैं कि आगे क्या करें!

सौभाग्य से शारीरिक और आर्थिक दृष्टि से उन्हें किसी तरह की कोई समस्या नहीं है, किन्तु बच्चों और परिवार के अन्य लोगों की चिन्ता नहीं छोड़ पा रहे हैं।

स्पष्ट है कि उन्हें स्वयं ही उनके समक्ष और उन्हें उपलब्ध विकल्पों में से किसी एक या अधिक विकल्पों का चुनाव करना है, उनकी एक समस्या यह भी है कि वे किसी ऐसे स्थान की खोज कर रहे हैं जहाँ वे लंबे समय तक रहकर "साधना" कर सकें।

किन्तु क्या वास्तव में यह कोई "समस्या" है?

शायद वे अपनी समस्या को ठीक से नहीं देख पा रहे हैं। शायद उन्हें किसी स्थान की नहीं, बल्कि किसी ऐसे एक "व्यक्ति" की आवश्यकता हो, जो कि उनके जीवन साथी के अभाव की पूर्ति कर सके। और यह भी जरूरी नहीं है कि ऐसा व्यक्ति कोई स्त्री ही हो, कोई भी स्त्री या पुरुष जो कि उनका मित्र या गुरु ही क्यों न हो, इस अभाव की पूर्ति कर सकता है।

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Saturday, 19 July 2025

FORE-WORD

  भूमिका-प्रस्तावना-उपसंहार  

पिछले पोस्ट में मैंने वर्ष में 2025 में पूर्ण होने जा रही अर्धशती के बारे में लिखा। किन्तु जीवन तो एक सतत अविरल, अविच्छिन्न प्रवाह है जिस पर टुकड़े टुकड़े में समय  को आरोपित कर दिया जाता है और वही प्रवाह तब कल्पित व्यक्ति और समाज की तरह आभासी रूप लेकर मन में विभाजित प्रतीत होने लगता है। और यहाँ से कठिनाई प्रारंभ हो जाती है। व्यक्ति के रूप में अपने अस्तित्व की प्रतीति और समाज के रूप में अपने जैसे दूसरे मनुष्यों की प्रतीति, इन दो प्रतीतियों के बीच सतत, कभी समाप्त न होनेवाला एक छद्मयुद्ध शुरू हो जाता है। और उसी तल पर जीवन और अस्तित्व के कल्पित  प्रयोजन और अर्थ के खोज की एक अंतहीन दौड़ भी।

इसे ही वैचारिकता या बौद्धिकता कहा और समझा भी जाता है। श्रीमद्भगवद्गीता के पाँचवे अध्याय के निम्न तीन श्लोक मुझे हमेशा प्रासंगिक प्रतीत होते हैं -

न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः।

न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते।।१४।।

नादत्ते कस्यचित्पापं सुकृतं चैव न विभुः।

अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः।।१५।।

ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितं आत्मनः।

तेषां आदित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत् परम्।।१६।।

उपरोक्त श्लोकों में जिसे अज्ञान कहा गया है, और जिसे  ज्ञान कहा गया है, उस ज्ञान और अज्ञान के बीच प्रतीति का एक झीना पार्थक्य या एक पर्दा है, और वही वस्तुतः वैचारिकता या बौद्धिकता है। जिस अर्धशती का इससे पहले के पोस्ट में उल्लेख किया गया उस कल्पित समय / कालखंड में (अपनी) चेतना में दो ही गतिविधियाँ चल रही थीं। पहली सूचना-तंत्र के प्रयोजन, आवश्यकता  और औचित्य पर प्रश्न के रूप में, और दूसरी थी (अपनी) चेतना को इस सारे समस्त जानकारी रूपी तथाकथित ज्ञान से निरन्तर रिक्त करते रहने की। यह सब अनायास हो रहा था और इस सबके होने से भी पहले अवलोकन / observation का महत्व स्पष्ट हो चुका था। वही एकमेव चेतना और ऊर्जा जो कि चेतना और ऊर्जा इन दोनों दो अलग अलग भिन्न प्रकारों में अभिव्यक्त और प्रतीत होती है, बौद्धिकता या इस तथाकथित ज्ञान का निरसन / emptying  हो जाते ही  अवलोकन / observation के रूप में कार्य करने लगती है। तब अवलोकन / observation की अग्नि में सारा ज्ञात जलकर इस प्रकार विलीन हो जाता है कि उसका प्रकाश तो यह जाता है, उसकी राख / भस्म शेष नहीं रह जाती। चूँकि तब यह दिखाई देने लगता है कि यह व्यक्ति चेतना, यह मैं-रूपी व्यक्ति और समाज रूपी यह बौद्धिकता एक ही मिथ्या वस्तु के, एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, दोनों दो पृथक् पृथक् और भिन्न भिन्न वस्तुएँ नहीं हो सकते।  

उस चेतना / ऊर्जा के प्रवाह में सब कुछ अनायास होता है क्योंकि तब वहाँ न तो प्रयास होता है और न व्यक्ति-मैं की तरह प्रयास करनेवाला कोई और। और न कोई अन्य जिसके संबंध में प्रयास किया जाना संभव हो।

पिछले 35 वर्षों में यही सब अनायास ही होता रहा है। इसलिए यह कहना बेमानी होगा कि मैंने कुछ किया। यह इस चेतना और ऊर्जा की ही एकमात्र गतिविधि थी, और है जो कि अपना कार्य करती रहती है।

पिछले 15 वर्षों में आभासी  समय  के इस प्रवाह में वर्ष 2009 से अब तक मोबाइल और कंप्यूटर के माध्यम के संपर्क में आ जाने के बाद ब्लॉग नामक सुविधा, लिखते रहने का एक सशक्त आधार बन गई। यद्यपि इस उपक्रम को जारी रखने में श्रम का भी योगदान महत्वपूर्ण था जो वस्तुतः उत्साह के कारण और उत्साह की अभिव्यक्ति ही था। ब्लॉग लिखते रहने से यह हुआ कि चेतना / ऊर्जा को एक दिशा दिखाई देती रही, और यद्यपि इस सुविधा से उत्पन्न इसके कुछ गौण तथा अवांछित प्रतिफलों का सामना भी करना पड़ा पर चूँकि मुझे शुरू से ही किसी से विचार-विनिमय करने में न कोई रुचि थी और न कभी आवश्यकता ही प्रतीत हुई, इसलिए सोशल मीडिया से न्यूनतम संबंध रखना उचित जान पड़ा। आज भी सारे विश्व में कहाँ क्या हो रहा है, यही जिज्ञासा आभासी वर्तमान से जोड़े रखती है, और उसी मर्यादा में मीडिया का उपयोग मुझे है। तो यह है मेरे ब्लॉग लिखे जाने की भूमिका और उपसंहार भी, जिसे कि प्रेरणा भी कहा जा सकता है। विवाद और विचारों का आदान-प्रदान करने से तो यथासंभव दूर ही रहना अच्छा लगता है।

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KAIVALYAM

प्रथम और अन्तिम  समाधिपाद  अथ योगानुशासनम्।।१।। कैवल्यपाद  पुरुषार्थशून्यानां गुणानां प्रतिप्रसवः कैवल्यं स्वरूपप्रतिष्ठा वा चितिशक्तिरिति।।...