अर्धशती
इस विषय पर दो दिन पहले अन्यत्र लिखने का प्रयास किया था किन्तु वह संभव न हो पाया। अब इस ब्लॉग में नए सिरे से लिख रहा हूँ।
यह मेरे व्यक्तिगत जीवन की उस अर्धशती के बारे में है जो 2025 में पूरी हुई।
संसार, व्यक्तित्व और वैयक्तिक जीवन इस जटिलता से परस्पर बँधे हैं कि सारे सूत्रों को खोलकर अलग अलग कर पाना अत्यन्त कठिन कार्य है जिसमें धैर्य, और संयम का प्रयोग करना आवश्यक होता है।
1975 से शुरू करें, तो तब से 2025 तक यह अर्धशती पूरी होने जा रही है। यह भी कुछ रोचक है कि दो दिन पहले इसे मैं जिस ब्लॉग में लिखने के बारे में सोच रहा था उसमें भी 1975 से ही इस पोस्ट को लिखना प्रारंभ किया था।
26 जून 1975 के उल्लेख से उसे शुरू किया था जब भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने देश पर आपातकाल लागू किया था।
उस समय मैंने ग्रेजूएशन पास किया ही था और एक वर्ष से बेरोजगार था। गाँव में रहकर हिन्दी माध्यम से हायर सेकेन्डरी तक विज्ञान और गणित के साथ शिक्षा प्राप्त करने के बाद अचानक कुछ बड़े शहर में रहने का संयोग मिला और मुझे यह पता था और पक्का विश्वास था कि आज की परिस्थितियों में अंग्रेजी का सहारा लिए बिना भौतिक जीवन में आगे बढ़ना बहुत मुश्किल होगा। घर की परिस्थितियाँ भी ऐसी थीं कि कॉलेज की फीस देना तक मेरे लिए संभव नहीं था, फिर भी हठपूर्वक कॉलेज में प्रवेश लिया ओर अंग्रेजी माध्यम को अपनाया। यह भी लगा था कि मुझे एक वर्ष तो इतनी अंग्रेजी सीखने में ही लग जाएगा। मतलब यह कि मुझे ग्रेजूएशन करने में तीन नहीं चार वर्ष लग जाएँगे। ठीक है, मैंने इस चुनौती को स्वीकार कर लिया।
1974 में ग्रेजूएशन पूरा करने के बाद एक वर्ष तक कोई रोजगार न मिल सका तो 1977 में पोस्ट ग्रेजूएशन कर लिया। किन्तु मेरी यह अर्धशती का प्रारम्भ तो 1974 में ही हो चुका था। 1977 में सम्मानजनक रोजगार प्राप्त हो जाने पर मैंने समझना चाहा कि जीवन में मुझे किस दिशा में आगे बढ़ना है। यह तो बचपन से ही स्पष्ट था कि मुझे विवाह नहीं करना है किन्तु बचपन में यह संभव ही न था कि इस बारे में कुछ सोच समझ पाता। किन्तु यह तय था कि जैसे ग्रेजूएशन के लिए कॉलेज में प्रवेश लेते समय मैंने अंग्रेजी पर जीत हासिल करने के लिए एक वर्ष का बलिदान देना स्वीकार कर लिया था, अब वैसे ही विवाह न करने की चुनौती को भी स्वीकार करना होगा। उस उम्र में अर्थात् वर्ष 1975 में एक ओर तो मेरे सामने यह बड़ी चुनौती थी कि अच्छे अंकों से पोस्ट ग्रेजूएशन की परीक्षा उत्तीर्ण कर लूँ, जिसे मैंने स्वीकार किया और फिर 1978 में सम्मानजनक रोजगार प्राप्त कर लेने के बाद और यह कि उन तमाम सामाजिक परिस्थितियों में रहते हुए मुझे अपने विवाह न करने के निश्चय पर अटल रहना था जो मुझे अविचलित बने रहने में बाधा डाल रही थीं।
उस समय मेरे सामने जो प्रश्न थे, उनके औचित्य को मैंने वरीयता क्रम के आधार पर समझना चाहा, और यद्यपि उस समय तो यह सब मुझे स्पष्ट नहीं था और जैसे तैसे संघर्ष करते हुए, किसी तरह मैं इसे कर पाया, किन्तु अब इसे मैं अधिक अच्छी तरह व्यक्त कर सकता हूँ।
वरीयता क्रम की वह कसौटी, वह आधार criteria इस प्रकार से था -
धर्म - अधर्म, पाप- पुण्य, नैतिकता - अनैतिकता, सभ्यता - असभ्यता, दम्भ, पाखण्ड और स्पष्टता,
अब अर्धशती के पूरा होते होते मैं पूरे आत्मविश्वास के साथ कह सकता हूँ इस कूट-पहेली को मैंने हल कर लिया है। और यह भी सच है कि इस बीच मेरा संतुलन अनेक बार निराशा और अवसाद के चरम तक जाकर पुनः सुस्थिर और सुव्यवस्थित हो गया, जिनके कारणों की चर्चा करना व्यर्थ है।
आधारबिन्दु जिन्हें दो ध्रुव कहा जा सकता है, जिस अक्ष के सहारे मुझे दिशा मिली वे थे चरित्र और अवधान।
चरित्र का अर्थ है मूल्य, कल्पित सीखे हुए आदर्श नहीं, विवेक पर आधारित वे निश्चय, जिनका आचरण धर्म के अनुकूल है और जिनका उल्लंघन धर्म से भिन्न, विपरीत, अधर्म या विधर्म का समानार्थी।
यह सब कुछ मुझे धर्म - अधर्म, पाप- पुण्य, नैतिकता - अनैतिकता, सभ्यता - असभ्यता, दम्भ, पाखण्ड और स्पष्टता, क्या है इसका अवलोकन करने पर समझ में आया। क्योंकि इन सभी तत्वों का व्यावहारिक और जीवन में पालन किए जाने का महत्व है। यह अवश्य ही बहुत संभव और स्वाभाविक था कि इस अर्धशती में मेरे अपने प्रमाद / अनवधानता के कारण मेरा चारित्रिक पतन भी हुआ और मैंने जाने अनजाने ही दूसरों को भी वैसे ही भ्रमित किया जैसा कि दूसरों ने मुझे किया। यह सब कुछ मानसिक और अनुकरणात्मक ही अधिक था - मैंने कभी न तो किसी दूसरे के अज्ञान, लोभ और भय का अनुचित शोषण किया और न अपने स्वार्थ के लिए दूसरों के पतन में कभी सहायक हुआ। किन्तु जैसा कहा, मैं अनेक बार गिरा भी अवश्य। और अन्ततः मैंने अपने उस सन्तुलन की मर्यादा को ठीक से समझ लिया जिसके बिगड़ते ही क्षणमात्र में मैं उन्माद, विषाद, अवसाद ओर निराश हो जाता था। हाँ अनेक बार इतनी बुरी तरह कि आत्महत्या कर लेने से बेहतर कोई विकल्प दिखाई ही नहीं देता था। तब केवल अवधान / अप्रमाद ने ही मुझे ऐसा करने से बचाया।
भाग्य, कर्म और प्रारब्ध के सिद्धान्त को मैं न तो समझ पाता था ओर न स्वीकार ही कर पाता था। तथाकथित ईश्वर की मान्यता भी मेरे लिए ऐसा ही एक अनसुलझा रहस्य था। आज भी मैं नहीं समझ पाता कि क्या आत्मा से भिन्न और पृथक् कोई दूसरे ऐसे ईश्वर का अस्तित्व है या नहीं जिसकी मैं उपासना कर सकूँ। केवल वास्तविक या कल्पित भय और लोभ से उत्पन्न मान्यता या धारणा के कारण ऐसे ईश्वर को मैं जानता ही कहाँ हूँ और यह संभव ही कैसे होगा!
सब कुछ ईश्वर है ईश्वर और "मैं" परस्पर भिन्न भिन्न दो वास्तविकताएँ नहीं हो सकती,
यह तो मुझे ठीक लगता है और बस वहीं तक। किन्तु मैं इस बारे में न तो किसी से चर्चा कर सकता हूँ, न विवाद, फिर किसी को उपदेश या शिक्षा देने की तो कल्पना तक कर पाना मेरे लिए असंभव ही है।
***