Saturday, 16 August 2025

KAIVALYAM

प्रथम और अन्तिम 

समाधिपाद 

अथ योगानुशासनम्।।१।।

कैवल्यपाद 

पुरुषार्थशून्यानां गुणानां प्रतिप्रसवः कैवल्यं स्वरूपप्रतिष्ठा वा चितिशक्तिरिति।।३४।।

(पाठान्तरम्--

पुरुषार्थशून्यानां गुणानां प्रतिप्रसवः कैवल्यं स्वरूपप्रतिष्ठा वा चितिशक्तेरिति।।)

चित् स्वयं ही शक्ति है और उस शक्ति के ५२ धाम हैं, जिन्हें शक्तिपीठ कहा जाता है। इनमें से प्रत्येक तीन तरत् हार्द / Tarot Card / The flowing heart है। प्रत्येक तीन फलकों / planes / चित्रों से बना है - जैसे कैलिडोस्कोप / Kaleidoscope के तीन फलक होते हैं। चितिशक्ति के तीन अ-त्रिभूत (attributes) यही हैं। यही चित् रूपी अ-त्रि नामक ऋषि हैं, जिनकी अर्द्धांगिनी है अनसूया प्रकृतिः।

सूयते, न सूयते वा कश्चित् किमपि वा सा अन्-असूया इति। असूया-रहिता, रहसि स्थिता।

चतुर्दशः भुवनाः मनोमयाः।।

सा त्रिगुणात्मिका अनसूया सृजति चतुर्दश-भुवनात्मकं मनोमयं जगदिदम्।।

तस्याः हि द्विपञ्चाशतमात्मकानि धामानि एतानि तरत् हार्दानि  Tarot Cards.

अत्र एकैकं धाम वा शक्तिपीठं त्रिगुणात्मकम्।

इस प्रकार इस कलित / कालिका / कालिस्वरूपा शक्ति के प्रत्येक धाम में तीन तरत् हार्द / Tarot Card  होते हैं। जिनमें एक अधिष्ठान और दो अन्य (व्यक्त पुरुष तथा व्यक्त प्रकृति) होते हैं। यही जीव-भावरूपी जन्म-मरण भूख-प्यास, इच्छा तथा द्वेष युक्त चेतन अहंकार अर्थात् स्व है। शक्तिपीठ। जैसे चित्रात्मक तरत् हार्द या तालपत्रों से ताश के तीन पत्तों से रचित, अहंकार रूपी कोई एक स्वकीय जगत्। ऐसे १४ गुणित ३ अर्थात् ४२ हार्द सूत्रों और दशमहाविद्याओं से विरचित कुल ५२ चित्रों से बना यह संपूर्ण अस्तित्व सतत चिरस्थायी और चिरसामयिक प्रतीत होता है।

यही कालितो श्यप् प्रत्यय है। श्यप् प्रत्यय के प्रयोग में श् और प् का लोप होकर य शेष रहता है। श्यकः प-सयुजं श्कपः। तथा च  Kaleidoscope. 

यतो वा हि अस्मिञ्जगति यत्किञ्चन अनुभूयते। तत्रैव अनुभवमिदं प्रतीयते कश्चित् अनुभोक्तारुपेण।

इति हि कैवल्यम् ।

तरत्-हार्द तरद्धार्द स्मृतिः।।

पुरुषार्थशून्यानां गुणानां प्रतिप्रसवः कैवल्यं स्वरूपप्रतिष्ठा चितिशक्तिरिति।।

***

 



Monday, 4 August 2025

The way of knowledge.

 Is Like :

Walking upon the double-edged sword :

A I  is verily this -- double edged sword! 

असि-धार-व्रतं -- शिलायाः हृदयं च यत्! 

--

नेति नेति नेतीति शेषितं यत् परं पदम्। 

निराकर्तुमशक्यत्वात्तदस्मीति सुखी भव।। 

जडतां वर्जयित्वैतां शिलाया हृदयं च यत्। 

अमनस्कं महाबाहो तन्मयः भव सर्वदा।। 

--

न इति न इति न इति, इति शेषितं, यत् परं पदम्।

निराकर्तुम् अशक्यत्वात्, तत् अस्मि, इति सुखी भव।।

जडतां वर्जयित्वा एतां, शिलायाः हृदयं च यत्। 

अमनस्कं महाबाहो तन्मयः भव सर्वदा।।

--

गुरु पूर्णिमा के दिन तीन मित्र मिलने के लिए आए थे।

एक ने कहा -

माण्डूक्य उपनिषद्  की आनन्दगिरि टीका का अनुवाद सरल हिन्दी अर्थ में कर सकेंगे क्या!

दूसरे मित्र ने कहा -

जब ये सीधे ही माण्डूक्य उपनिषद् का सरल हिन्दी अर्थ कर सकते हैं तो किसी अन्य टीका का अर्थ और अनुवाद का परिश्रम क्यों किया जाए! 

अभी एक मित्र ने उपरोक्त दो श्लोकों का "सही अर्थ" क्या है, यह जानना चाहा तो मुझे याद आया।

शास्त्रज्ञान की यही मर्यादा है।

कोई दूसरा आपको जो शास्त्रज्ञान देता है उसे समझने के लिए बहुत धैर्य रखना और रुचि के साथ श्रम करना भी उतना ही आवश्यक होता है।

और इतना ही नहीं, फिर उसे प्रयोग भी करना होता है।

शास्त्रीय ज्ञान तो बौद्धिक भी हो सकता है,

और कंप्यूटर, ए आई की सहायता से,

उसकी विवेचना शायद और अधिक अच्छी तरह से कर सकता है।

इस सबमें बुद्धि का कार्य होता है जो बुद्धि तक ही सीमित रह जाता है। 

सैद्धांतिक दृष्टि से आप संतुष्ट हो भी सकते हैं या शायद न भी हो सकें। बुद्धि का अधिक प्रयोग थका भी सकता है।

मनस्कमन्यमनस्कं च विमनस्कमपि यच्चित्तम्।

चिति उदीयते चिति एव विलीयते तच्चित्तम्।।

चित्तं चिद्विजानीयात् त-कार रहितं यदा। 

त-कार विषयाध्यासो विषयविषयिनोः भेदतः।।

यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति।

तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च।।

***

 

 

 

 


KAIVALYAM

प्रथम और अन्तिम  समाधिपाद  अथ योगानुशासनम्।।१।। कैवल्यपाद  पुरुषार्थशून्यानां गुणानां प्रतिप्रसवः कैवल्यं स्वरूपप्रतिष्ठा वा चितिशक्तिरिति।।...